माया द्वारा ही परब्रह्म विश्व की सृष्टि होती है। सृष्टि विस्तार के लिए पुरुष की उसमें आसक्ति। अतः विस्तार हेतु काम की उत्पत्ति हुई। रज -सत्व के सम्बन्ध से द्वैत सृष्टि का विस्तार होता है। सत्वमय सूक्ष्मकार्यरूपों विष्णु एवं रजोमय स्थूल कार्यरूपा ब्रह्म के मोहित हो जाने पर भी कारणात्मा शिव मोहित नहीं होते है। मोह रहित करण से सृष्टि की स्थिति अपूर्ण है। मायामय सती ने शिव को स्वाधीन कर लिया तथापि पिता द्वारा पति का अपमान -अवेलना होने पर उन्होंने उस पिता से सम्बंधित उस शरीर का त्याग कर देना उचित समझा। महाशक्ति का शरीर उनका लीला विग्रह ही है। अधिस्वान -चैतन्य सहित महाशक्ति का उस लीला विग्रह सती शरीर से तिरोहित हो जाना ही सती का मरण है। दक्ष प्रमाद अहंकार का प्रतिमूर्ति है। शक्ति उससे सम्भन्ध तोड़ देती है तो वह विनष्ट हो जाता है। शिव महाशक्ति में रत थे। मोहित होने के कारण उसे नहीं त्याग सके। इसी मोहवश शंकर महाशक्ति के अधिष्ठानभूत उस प्रिय देह को लेकर घूमने लगे। जहाँ -जहाँ उनके अंगों का पात हुआ वे स्थान भी दिव्य शक्तियों के अधिष्ठान बन गए। वैसे तो जहाँ भी जिस किसी भी वस्तु में जो भी शक्ति है उन सब का ही अंतर्भाव महाशक्ति में ही है। वह ही 51 शक्तिपीठ है।
अतः प्रणात्मक ब्रह्म ही निखिल विश्व का उपादान है। वही शक्तिमय सती शरीर रूप में और निखिल "वाड्मय" प्रपंच के मूलभूत एक पश्चाशत (इक्यावन )वर्ण रूप में व्यक्त होता है जैसे अखिल विश्व का शक्तिरूप में ही पर्यवसान होता है। वैसे ही वर्णों में ही सकल वाड्मय प्रपंच का अंतर्भाव होता है। क्यूंकि सभी शक्तियों वर्णों की आनुपूर्वी विशेष मात्र है। शब्द अर्थ का वाच्य -वाचकता,का असरण सम्बन्ध अभेद ही होता है। अतएव इक्यावन वर्णों के कार्यभूत सकल काडमय प्रपंच का जैसे इक्यावन वर्णों में अंतर्भाव किया जाता है। वैसे ही वाड्मय प्रपंच के वाच्यभूत सकल अर्थमय प्रपंच का उसका मूलभूत इक्यावन शक्तियों का अंतर्भाव करके वाच्या -वाचकता का अभेद प्रस्तुत किया है। यही इक्यावन पीठों का रहस्य है। हृदय से उधर्व भाग के अंग जहाँ गिरे वहाँ वैदिक एवं दक्षिण मार्ग की सिद्धि होती है। हृदय से निमिन्न भाग अंगों पतन स्थानों में वाम मार्ग की सिद्धि होती है।
यह भी पढ़े:-
जानिए माँ विंध्यवासिनी के चार आरतियों का रहस्य
श्री गणेश की आराधना से होगा समस्त रोगों का निवारण
क्यों है मां विंध्यवासिनी की पूजा हेतु अक्षय तृतीया का दिन सर्वोत्तम