भारत में परिवार सुरक्षित है, इसका एक बहुत बड़ा कारण प्राचीन भारतीय मेलापक पद्धति है। पश्चिमी देशों में परिवार का पतन हो गया है, समाज असुरक्षित हो गया है, परिवार और समाज में परस्पर सुरक्षा की भावना का अभाव हो गया है। अमेरिका जैसे देश में इन दो इकाईयों का पतन होने के बाद केवल राष्ट्र सुरक्षित है, परन्तु भारत में परिवार भी सुरक्षित है, समाज भी सुरक्षित है और व्यक्ति समाज का डर मानता है। हमारा राष्ट्र और संस्कृति अक्षुण्ण रहेंगे, ऐसा आश्वासन परिवार प्रणाली के सुरक्षित रहने से हम प्राप्त कर सकते हैं।
प्राचीन मेलापक पद्धति:
ज्योतिष छ: वेदांगों में से एक है। वेदांगों के रचनाकाल तक यह तय हो चुका था कि पारिवारिक इकाई सुदृढ़ हो तथा समाज भी इतना शक्तिशाली हो कि व्यक्ति या परिवार उसका सम्मान करें तो देश में धर्म या कानून का शासन करना और आसान हो जाएगा। ऐसा करने के लिए दो व्यक्तियों के बीच में जिस मतैक्य की आवश्यकता थी उसे प्राप्त करने के लिए जिस पद्धति का प्राचीन ऋषियों ने आविष्कार किया वह वैदिक ज्योतिष पर आधारित विवाह मेलापक पद्धति है। इसका मुख्य आधार दो व्यक्तियों के जन्म नक्षत्र पर आधारित एक तुलनात्मक विवरण है, अष्टकूट मेलापक पद्धति जिसमें कुल मिलाकर 36 पूर्णांक है तथा 18 या कुछ अंक मिलने पर मध्यम मेलापक माना जाता है तथा 24 या अधिक अंक मिलने पर उत्तम मेलापक माना जाता है। कालांतर में दो व्यावसायिक भागीदारों के बीच में भी इस मेलापक का प्रयोग किया जाने लगा।
ऋषियों ने अपने अनुभव से यह तय किया कि पुरुष और स्त्री के नक्षत्रों में कुछ नक्षत्र तो एक-दूसरे को बहुत अधिक सहयोग करते हैं और कुछ नक्षत्र एक-दूसरे को बिल्कुल सहयोग नहीं करते। गुण-मिलाने की पद्धति का मुख्य आधार नक्षत्रों की परस्पर शत्रुता या मित्रता है। उदाहरण के लिए यदि पुरुष का अश्विनी नक्षत्र हो और स्त्री का भरणी नक्षत्र हो तो 34 गुण मिलते हैं। इसी भांति उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का पुरुष हो और पूर्वाफाल्गुनी की स्त्री हो तो 35 गुण मिलते हैं। हस्त नक्षत्र का पुरुष हो और मृगशिरा नक्षत्र के अंतिम चरणों में स्त्री का जन्म हुआ हो तो 34 गुण मिलते हैं। दूसरी तरफ उत्तराषाढ़ में पुरुष हो और मघा में स्त्री का जन्म हो तो साढ़े तीन गुण मिलते हैं। चित्रा नक्षत्र में पुरुष का जन्म हो और भरणी नक्षत्र में स्त्री का जन्म हो तो केवल 4 गुण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय आचार्यों ने सांख्यिकीय आधार पर अनुसंधान करके एक ऐसी सारिणी का आविष्कार कर लिया था, जिसमें एक व्यक्ति के नक्षत्र का दूसरे जातक के जन्म नक्षत्र से मिलान करने के लिए सामग्री उपलब्ध थी। आज यह सारिणी हर पंचाङ्ग में उपलब्ध रहती है। भारतीय ज्योतिष में शामिल गिए गए सभी नक्षत्रों की परस्पर मेलापक सारिणी आज सहज उपलब्ध है। परन्तु स्त्री-पुरुष के विवाह के पश्चात उनका वैवाहिक जीवन सफल सिद्ध हो इसके लिए केवल नक्षत्रों के आधार पर मेलापन पर्याप्त नहीं है, उसमें कुछ और तथ्यों का समावेश और परीक्षण किया जाना आवश्यक है।
अष्टकूट गुण मिलान:
अष्टकूट गुण मिलान में 8 गुण समूह हैं, जिन्हें समन्वित रूप से विचार करके मेलापन किया जाता है। इनमें वर्ण को एक गुण, वश्य के 2 गुण, तारा के 3 गुण, योनि के 4 गुण, ग्रहमैत्री 5 गुण, गण के 6 गण, भकूट के 7 एवं नाड़ी के 8 गुण माने गए हैं। दक्षिण भारत में दसकूट पद्धति में 10 आधार हैं, जिनके आधार पर गुण मेलापन किया जाता है। इनके नाम है दिन (भाग्य), गण (संपत्ति), महेन्द्रम (परस्पर प्रेम), स्त्रीदीर्घम् (सामान्य शुभत्व), योनि (प्रणय सुख), राशि (पारिवारिक उन्नति), रिश्याधिपति (धन-धान्य), वश्य (संतान), रज्जु (वैवाहिक दीर्घता), वेध (पुत्र प्राप्ति) इसके अलावा पुरुष-स्त्री नक्षत्र, गोत्र व वर्ण भी दक्षिण भारत में देखे जाते हैं। उत्तर भारत में अष्टकूट गुण मिलान में वर्ण से कार्यक्षमता, वश्य से प्रधानता, तारा से भाग्य, योनि में मानसिकता, ग्रहमैत्री से सामंजस्य, गण से गुण प्रधानता, भकूट से प्रेम और नाड़ी दोष से स्वास्थ्य देखा जाता है। आजकल लोग नाड़ी दोष का समीकरण रक्त के आर.एच. (-या+) से करने लगे हैं। भकूट और नाड़ी दोष में जाति वैशिष्ट्य के आधार पर भी भेदाभेद किया जाता है। मैं नक्षत्रों के कुछ ऐसे जोड़े लिख रहा हँू, जिनमें 30 या 30 से अधिक गुण मिलते हैं।
भरणी - अश्विनी 33-34
पुनर्वसु - भरणी 31 ।।
शतभिषा-कृत्तिका 31 ।।
मृगशिरा-रोहिणी 36
पूर्वाभाद्रपद-रोहिणी 30 ।।
हस्त-मृगशिरा 34
पुनर्वसु-मृगशिरा 31 ।।
मघा-पूर्वाफाल्गुनी 30
अनुराधा-उत्तराफाल्गुनी 31 ।।
आद्र्रा-हस्त 33
ऐसे कुछ और भी जोड़े हैं, जिनमें गुणों की संख्या 25 से कम नहीं है। उन जोड़ो की संख्या भी 15 से कम नहीं है।
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विवाह एक संस्कार:
मनुस्मृति सहित सभी प्राचीन ग्रंथों ने सोलह संस्कारों में से एक विवाह संस्कार को प्रमुख माना है। प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि विवाह का उद्देश्य पुत्रोत्पत्ति करके पितृ ऋण से उन्मुक्त होना है परन्तु यह मान्यता अब धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। परन्तु प्राचीन शास्त्रों की कुछ बातें हिन्दू समाज में इतनी जड़ पकड़ चुकी हैं कि उनका उल्लंघन आज तक भी नहीं होता है।
स्त्री और पुरुष सगोत्री नहीं होने चाहिये। अधिकांश जातियों में आज भी चार गोत्र बचाने की कोशिश की जाती है। चार गोत्रों में थोड़ी दूरी तक के रिश्तेदार आ जाते हैं। रक्तशुद्धि की परम्परा को बनाए रखने के लिए तथा जातिगत संस्कारों का हृास नहीं हो इसलिए अधिकतर जातियों में गोत्रों को बचाने की चेष्टा की जाति है। वर-वधू की उपलब्धि न होने पर आजकल मजबूरी में लोग एक या दो गोत्र बचाकर ही विवाह करने लग गए हैं।
लक्षणयां स्त्रियमुद्वहेदवितथस्वब्रह्मचर्यों मन:
कान्तामन्यपरिग्रहत्वसवय: सापिण्ड्यरुग्दर्जिताम्।
गात्रादिप्रवरेषु साम्यरहितां कुण्ठाद्यमर्यादिनीं
गौरीत्वानधिकां मनोनयनायोरानन्दिनीं सुन्दरीम्।।
कालिदास ने शुभ लक्षणों से युक्त, अविवाहित, अपनी आयु से कम आयु वाली सपिण्डता से रहित, गोत्र व प्रवरों में भिन्नता वाली, कोढ आदि रोगों से रहित 10 वर्ष से कम आयु वाली, मन व आंखों से सुंदर लगने वाली कन्या से विवाह प्रशस्त बताया है। उपरोक्त श्लोक में गौर शब्द से तात्पर्य 8 वर्ष से कम उम्र की कन्या से है, परन्तु अब कानून 18 वर्ष से कम उम्र की कन्या से विवाह की आज्ञा नहीं देता। इसको छोडक़र लगभग सभी शास्त्रीय नियमों की पालना लोग करते हैं।
विष्णु पुराण में पिता की सात पीढिय़ों व माता की पांच पीढिय़ों के गोत्रों को देखकर सपिण्ड होने या न होने का निर्णय किया जाता है।
सप्तमीं पितृपक्षाच्च मातृपक्षाच्च पंचमीम्।
उद्वहेत् द्विजो भार्यां न्यायेन विधिना नृप।।
वर के पिता से सात पीढ़ी ऊपर, पितामह, प्रपितामह, तत्पितामह, तत्पितामह और इनके वंशज सपिण्ड कहलाएंगे। इसी प्रकार माता पक्ष में मातामह (नाना), प्रमातामह (पड्नाना), प्रप्रमातामह (इनके पिता व पितामह) व इनके वंशजों को छोड़ देना है। दोनों पक्षों में ये गोत्र मिल जाए तो विवाह नहीं होता है।
परन्तु इन नियमों में आजकल शिथिलन आने लगा है।
कुछ सावधानियाँ
मंगल दोष
जन्म पत्रिका में बारहवाँ भाव, लग्न, चतुर्थ, सप्तम व अष्टम भाव में मंगल होने से मंगल दोष माना जाता है। ऋषियों ने वैधव्य दोष को मंगल दोष कहा है। जन्मपत्रिका में यह भाव निम्न प्रकार से दर्शाए जा सकते हैं :-
पुरुष या स्त्री की जन्मपत्रिका में इन भावों में से किसी भी भाव में मंगल हो तो मंगल दोष कहलाता है। जिससे विवाह का प्रस्ताव है, अगर उसकी जन्मपत्रिका में इनमें से किसी भी भाव में मंगल हो तो मंगल दोष का निवारण माना जाता है। यदि मंगल न हो तो सूर्य, शनि या राहु हो तो भी मंगल दोष का निवारण माना जाता है। ऋषियों ने वैधव्य से बचने के लिए मजबूरी में यदि ऐसे जातकों का विवाह करना पड़े तो पहला विवाह शालिग्राम भगवान या कुंभ (घड़ा) या पीपल आदि से करने का प्रस्ताव किया है। कुछ लोग यह कार्य विवाह मंडप में ही विवाह से कुछ घड़ी पूर्व ही संपन्न कर लेते हैं। मंगल दोष देखते ही निर्णय नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि इसके अपवादों का अच्छी तरह अध्ययन करने के बाद ही दोष बताए जाने चाहिए।
जन्म राशि की प्रधानता:
विवाह में, शुभ काम में, यात्रा में, घर बनाने में गृह प्रतिष्ठा में जन्म राशि से ही मुहूर्त निकालना प्रशस्त होता है, परंतु देश, गांव, घर, युद्ध, नौकरी और व्यापार के विषय में नाम राशि से भी देखने का प्रस्ताव किया गया है। कुछ लोग गुणों का मेलापन भी नाम राशि से कर लेते हैं, जन्म राशि से नहीं करते। यह गलत है और इससे बचा जाना चाहिए।
ज्येष्ठ विचार:
ज्येष्ठ पुत्र, ज्येष्ठ पुत्री और ज्येष्ठ मास इन तीनों का मिलान नहीं होना चाहिए अर्थात् यदि पुत्र या पुत्री में से जिसका विवाह हो रहा हो, वह घर में सबसे वरिष्ठ संतान हो, यदि वर और कन्या दोनों ही वरिष्ठतम हों तो उनका विवाह ज्येष्ठ मास में नहीं करना चाहिए।
विवाह समय:
कन्या का विवाह 18 वर्ष व वर का विवाह 21 वर्ष से पूर्व नहीं करना चाहिए। पुत्र के विवाह करने के छ: मास तक कन्या का विवाह नहीं करना चाहिए। संवत् बदल जाए तो कर सकते हैं। सिंह के बृहस्पति में भी विवाह नहीं किया जाता है, परन्तु मेष के सूर्य में विवाह कर देते हैं चाहे सिंह राशि में बृहस्पति स्थित हो। होलाष्टक, मलमास और चातुर्मास में विवाह नहीं किए जाते।
विवाह नक्षत्र:
रोहिणी, तीनों उत्तरा, रेवती, मूल, स्वाति, मृगशिरा, मघा, अनुराधा और हस्त ये ग्यारह नक्षत्र ही विवाह में प्रशस्त बताए गए हैं। इसी भांति वर का सूर्य, कन्या का बृहस्पति और दोनों का चंद्र बल देखा जाता है। विवाह में 10 प्रमुख दोष शास्त्रों में वर्जित हैं उनका ध्यान अवश्य रखना चाहिए। पुष्य नक्षत्र में विवाह वर्जित है। गुरु-शुक्र के अस्त होने पर तारा डूबा माना जाता है, जिनमें विवाह नहीं किया जाता।
गुण मिलने पर भी कब विवाह न करें?
36 में से 18 गुण मिलने पर प्राय: संबंध की हां भर दी जाती है। परन्तु कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं जब किसी भी हालत में विवाह नहीं किया जाना चाहिए। यदि किसी की भी आयु कम होने के योग हों तो विवाह प्रशस्त नहीं माना जाता। असाध्य रोग से पीडि़त होने पर भी विवाह नहीं करना चाहिए। यदि तलाक दिलाने वाले ग्रह या परित्यक्त योग हो तो भी मेलापन नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए सप्तम भाव में सूर्य, केतु या सूर्य-केतु, राहु-शनि, शनि-मंगल, शनि-केतु, शुक्र-बुध-केतु, सूर्य-शुक्र-बुध, चंद्र-बुध-शुक्र जैसी युतियां हों तो मेलापन में बहुत अधिक सावधानी बरती जानी आवश्यक है। शास्त्रों की कुछ बातें अभी भी मानी जा सकती है। कालिदास के अनुसार सगोत्र, सपिण्ड विवाह नहीं करने चाहिए। तीन ज्येष्ठ का मिलान नहीं होना चाहिए। सगे भाइयों का विवाह एक ही कुल में नहीं करना चाहिए। सौतेले माता-पिता में भी तीन पीढ़ी तक सपिण्डता रहेगी। मामा की लडक़ी से विवाह निषेध बताया गया है। रक्त संबंध में भी विवाह वर्जित हैं। ममेरी, फुफेरी बहिन से भी विवाह वर्जित बताया गया है। लडक़ी के विवाह के पश्चात् लडक़े का विवाह शीघ्र कर सकते हैं।
सप्तम भाव बहुत बली हो तो विवाह मेलापन करने में सतर्कता बरतनी चाहिए। सप्तम भाव में बहुत अधिक बिंदु हों (अष्टक वर्ग शुभ बिन्दु) तो भी सावधानी बरतनी चाहिए। उदार परिवारों की कन्या का विवाह उदार परिवारों में ही करना चाहिए। रुढि़वादी परिवार की कन्या का विवाह रुढि़वादी परिवारों में ही करना चाहिए। ज्योतिष के दृष्टिकोण से यदि जन्मकुण्डली में परित्यक्त योग पड़ा हुआ है और ऐसे जातकों का मेलापन कर दिया जाए तो परित्यक्त योग की अवधि को सावधानीपूर्वक निकालने के लिए वर या कन्य अपने ग्राम या शहर से उतनी अवधि के लिए अन्यत्र कहीं चला जाए तो विवाह बचाया जा सकता है। यदि वर या कन्या नौकरी के कारण अलग-अलग रहने पर मजबूर हों तो परित्यक्त दोष का निवारण अपने आप ही हो जाता है। अनजाने कुलों में विवाह से बचना चाहिए। मिलाने होने पर भी कोई न कोई ऐसा जानकर बीच में होना चाहिए, जिसे दोनों कुल जानते हों।
भारतीय मेलापक पद्धति में यद्यपि बहुत दोष हैं, परन्तु फिर भी यह सर्वश्रेष्ठ है। आजकल विप्रगण मेलापक के समय अधिक श्रम नहीं करते अन्यथा कोई कारण नहीं कि इस पद्धति से पूरे लाभ न उठाए जा सकें। बहुत बड़ी संख्या में विदेशी भी आजकल मेलापन के माध्यम से अपना संबंध तय करने लगे हैं।
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