जगन्नाथ यात्रा से पहले क्यों निभाई जाती है, भगवान जगन्नाथ के बीमार होने की परंपराl
जगन्नाथ यात्रा से ठीक 15 दिन पहले भगवान जगन्नाथ बीमार पड़ते हैं. 15 दिन बाद स्वस्थ होने के बाद भगवान लोगों के सामने आते हैं, तब इसी खुशी में भव्य रथयात्रा निकाली जाती है. आइए हम आपको बताते हैं कि परंपरा के वास्तविक मायने क्या है! उड़ीसा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर विश्व प्रसिद्ध है दुनिया भर में इसके भक्तगण है,और इसके चर्चे हैं. भारत में इसे चार प्रमुख तीर्थ स्थानों में से एक माना जाता है. इस मंदिर में कृष्ण भगवान जगन्नाथ के रूप में बड़े भाई बलराम और बहन देवी सुभद्रा के साथ विराजते हैं. हर साल आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को जगन्नाथ रथयात्रा निकाली जाती है.
इस दिन भगवान जगन्नाथ देवी सुभद्रा और बलरामजी अलग-अलग रथ में सवार होकर अपनी मौसी के घर गुंडिचा मंदिर जाते हैं. लेकिन इस यात्रा से पहले कुछ परंपराएं निभाई जाती हैं. यह सुनने में बहुत ही अजीब लगता है. इन्हीं में से एक परंपरा भगवान के बीमार पड़ने की है. यस रथ यात्रा में से 15 दिन पहले भगवान जगन्नाथ ,सुभद्रा देवी और बलराम जी तीनों बीमार पड़ जाते हैं. इस दौरान वह एकांतवास में रहते हैं 1 जुलाई को भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकाली जाएगी और अभी भगवान बीमार चल रहे हैं और एकांतवास में रह रहे हैं जानिए यह परंपरा क्यों निभाई जाती हैl
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जानिए परंपरा की वजह:
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान जगन्नाथ ,भगवान बलराम और बहन सुभद्रा को जेष्ठ मास की पूर्णिमा के दिन 108 कराया था. इस पानी से स्नान करने के बाद वह तीनों बीमार पड़ गए थे और उन्हें बुखार आ गया था. तब देसी जड़ी बूटियों से उनका इलाज किया गया था .और उन्हें 15 दिन के लिए एकांतवास में रखा गया था, ताकि बीमारी का संक्रमण लोगों के बीच ना फैले और पूरी तरह स्वस्थ होने के बाद भगवान लोगों के बीच आए थे.
तब से आज तक यह परंपरा निभाई जा रही है. हर साल बेस्ट पूर्णिमा पर भगवान को 108 घरों के पानी से नहलाया जाता है और उसके बाद भगवान बीमार हो जाते हैं और एकांतवास में रहने लगते हैं . वहां उनका इलाज राजवैद्य कर रहे होते हैं ठीक होने के बाद भगवान भक्तों को दर्शन देने के लिए सभी के समक्ष आते है और इसी खुशी में रथयात्रा निकाली जाती है.
इंसानों की तरह होता है इलाज :
जब भगवान स्नान के बाद बीमार पड़ जाते हैं तो 15 दिनों तक उन्हें एकांतवास में ही रखा जाता है, और जहां वह पूरी तरह से आराम करते हैं. इसी बीच कोई भी भक्तों उनके दर्शन नहीं कर सकता. उनका इलाज ठीक उसी तरह किया जाता है, जैसे आमतौर पर आम लोगों का किया जाता है. भगवान को आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों का भोग लगाया जाता है. उन्हें फुलुरी नाम का एक विशेष तेल लगाया जाता है. पूरी तरह से स्वस्थ होने के बाद भगवान अपने भक्तों को दर्शन देते हैं और उसके बाद रथ यात्रा निकाल ली जाती है.
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जाने आखिर क्या संदेश देती है यह परंपरा:
बीमारी के दौरान 15 दिनों तक भगवान एकांतवास में ही रहते हैं ,ताकि संक्रमण उनके भक्तों तक ना पहुंचे थे इसका सीधा सा अर्थ यह है, कि संक्रामक बीमारियों में व्यक्ति को खुद को अन्य लोगों से दूर रखना चाहिए खुद भगवान ने भी किसी जमाने में इसी नियम का पालन किया था. और अपने भक्तों को भी यही करने का संदेश दिया था. आज के ज्यादातर विशेषज्ञों का भी यही मानना है, कि संक्रामक बीमारी के चक्र को तोड़ने में करीब 14 से 15 दिन लग जाते हैं और उनमें भी संक्रमण के चक्र को तोड़ने के लिए 14 दिनों के लिए क्वारंटाइन रहने के निर्देश दिए गए थे.
वहीं क्वॉरेंटाइन में भी इंसान को सिर्फ भगवान भरोसे ही नहीं रहना चाहिए. बल्कि खुद का वैद्य से इलाज इलाज करा कर अपना कर्म करना चाहिएl भगवान भी चाहते तो खुद को अपनी शक्तियों से ठीक कर सकते थे परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया और सरल तरीके से इलाज करवा कर अपने भक्तों को भी यही करने का संदेश दियाl
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