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Holashtak Monday : आज है होलाष्टक का सोमवार इस दिन करें शिव कवच का पाठ नहीं सताएगा कोई भय

Acharya Rajrani Sharma Updated 18 Mar 2024 09:44 AM IST
Holashtak
Holashtak - फोटो : Myjyotish

खास बातें

Holashtak Monday : आज है होलाष्टक का सोमवार इस दिन करें शिव कवच का पाठ नहीं सताएगा कोई भय 

Recite Shiva Kavach on Holashtak Monday : होलाष्टक के सोमवार के दिन फाल्गुन माह की नवमी होने से इस दिन अमोघ शिव कवच का पाठ करने से भक्तों को मिलेगा इसका संपूर्ण लाभ. 
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Holashtak Monday : आज है होलाष्टक का सोमवार इस दिन करें शिव कवच का पाठ नहीं सताएगा कोई भय 


Recite Shiva Kavach on Holashtak Monday : होलाष्टक के सोमवार के दिन फाल्गुन माह की नवमी होने से इस दिन अमोघ शिव कवच का पाठ करने से भक्तों को मिलेगा इसका संपूर्ण लाभ. दूर होगा होलाष्टक का अशुभ फल 

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Benefits Of Holashtak Monday : होलाष्टक का सोमवार भगवान शिव के पूजन का विशेष दिन माना गया है. होलाष्टक के सभी दिन किसी न किसी रुप में विशेष माने गए हैं जिन्हें साधना हेतु उत्तम गति देनेन वाला भी कहा गया है.  

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होलाष्टक सोमवार के दिन भगवान शिव पूजन से दूर होंगे पाप प्रभाव 

फाल्गुन माह में होलाष्टक का समय बहुत संवेदनशील समय माना गया है जिसे तंत्र की दृष्टि एवं ग्रहों की क्रुरता हेतु जाना गया है. ऎसे में होलाष्टक के आठ दिन आने वाले प्रत्येक दिन में जब सोमवार का दिन पड़ता है तो इस दिन शिव पूजन करने से होलाष्टक के अशुभ प्रभाव से बचाव संभव होता है. इस दिन भगवान शिव की पूजा करने की परंपरा भी है ऎसे में शिव की पूजा करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है.

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होलाष्टक में आने वाले सोमवार के दिन प्रात:काल समय शिवलिंग पर जल चढ़ाना बहुत फलदायी माना जाता है.  भगवान शिव की पूजा करने से भक्त को मिलता है बल और पाप प्रभावों से मुक्ति. होलाष्टक के सोमवार के दिन शिव की पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है. कहा जाता है कि जो लोग इस दिन भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करना चाहते हैं उन्हें शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग पर जल चढ़ाना चाहिए ओर साथ में 11 बेल पत्र भी चढ़ानाने चाहिए. ऎसा करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. इस खास दिन पर अमोघ शिव कवच का पाठ करना बहुत लाभकारी माना जाता है, जो भक्त श्रद्धापूर्वक यह पाठ करते हैं उन्हें इसका सर्वोत्तम फल मिलता है.

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अमोघ शिव कवच

वज्र-दंष्ट्रं त्रि-नयनं काल-कण्ठमरिन्दमम् ।
सहस्र-करमत्युग्रं वंदे शंभुमुमा-पतिम् ॥
मां पातु देवोऽखिल-देवतात्मा, संसार-कूपे पतितं गंभीरे ।
तन्नाम-दिव्यं वर-मंत्र-मूलं, धुनोतु मे सर्वमघं ह्रदिस्थम् ॥
सर्वत्र मां रक्षतु विश्व-मूर्तिर्ज्योतिर्मयानन्द-घनश्चिदात्मा ।
अणोरणीयानुरु-शक्तिरेकः, स ईश्वरः पातु भयादशेषात् ॥
यो भू-स्वरूपेण बिभात विश्वं, पायात् स भूमेर्गिरिशोऽष्ट-मूर्तिः ।
योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति, सञ्जीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥
कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा, सर्वाणि यो नृत्यति भूरि-लीलः ।
स काल-रुद्रोऽवतु मां दवाग्नेर्वात्यादि-भीतेरखिलाच्च तापात् ॥
प्रदीप्त-विद्युत् कनकावभासो, विद्या-वराभीति-कुठार-पाणिः ।

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चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः, प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्रम् ॥
कुठार-खेटांकुश-पाश-शूल-कपाल-ढक्काक्ष-गुणान् दधानः ।
चतुर्मुखो नील-रुचिस्त्रिनेत्रः, पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥
कुन्देन्दु-शङ्ख-स्फटिकावभासो, वेदाक्ष-माला वरदाभयांङ्कः ।
त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरु-प्रभावः, सद्योऽधिजातोऽवस्तु मां प्रतीच्याम् ॥
वराक्ष-माला-भय-टङ्क-हस्तः, सरोज-किञ्जल्क-समान-वर्णः ।
त्रिलोचनश्चारु-चतुर्मुखो मां, पायादुदीच्या दिशि वाम-देवः ॥
वेदाभ्येष्टांकुश-पाश-टङ्क-कपाल-ढक्काक्षक-शूल-पाणिः ।
सित-द्युतिः पञ्चमुखोऽवताम् मामीशान-ऊर्ध्वं परम-प्रकाशः ॥
मूर्धानमव्यान् मम चंद्र-मौलिर्भालं ममाव्यादथ भाल-नेत्रः ।
नेत्रे ममाव्याद् भग-नेत्र-हारी, नासां सदा रक्षतु विश्व-नाथः ॥
पायाच्छ्रुती मे श्रुति-गीत-कीर्तिः, कपोलमव्यात् सततं कपाली ।
वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रो, जिह्वां सदा रक्षतु वेद-जिह्वः ॥
कण्ठं गिरीशोऽवतु नील-कण्ठः, पाणि-द्वयं पातु पिनाक-पाणिः ।
दोर्मूलमव्यान्मम धर्म-बाहुर्वक्ष-स्थलं दक्ष-मखान्तकोऽव्यात् ॥
ममोदरं पातु गिरीन्द्र-धन्वा, मध्यं ममाव्यान्मदनान्त-कारी ।
हेरम्ब-तातो मम पातु नाभिं, पायात् कटिं धूर्जटिरीश्वरो मे ॥
ऊरु-द्वयं पातु कुबेर-मित्रो, जानु-द्वयं मे जगदीश्वरोऽव्यात् ।
जङ्घा-युगं पुङ्गव-केतुरव्यात्, पादौ ममाव्यात् सुर-वन्द्य-पादः ॥
महेश्वरः पातु दिनादि-यामे, मां मध्य-यामेऽवतु वाम-देवः ।
त्र्यम्बकः पातु तृतीय-यामे, वृष-ध्वजः पातु दिनांत्य-यामे ॥
पायान्निशादौ शशि-शेखरो मां, गङ्गा-धरो रक्षतु मां निशीथे ।
गौरी-पतिः पातु निशावसाने, मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्व-कालम् ॥
अन्तः-स्थितं रक्षतु शङ्करो मां, स्थाणुः सदा पातु बहिः-स्थित माम् ।
तदन्तरे पातु पतिः पशूनां, सदा-शिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥
तिष्ठन्तमव्याद् भुवनैकनाथः, पायाद् व्रजन्तं प्रथमाधि-नाथः ।
वेदान्त-वेद्योऽवतु मां निषण्णं, मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥
मार्गेषु मां रक्षतु नील-कंठः, शैलादि-दुर्गेषु पुर-त्रयारिः ।
अरण्य-वासादि-महा-प्रवासे, पायान्मृग-व्याध उदार-शक्तिः ॥
कल्पान्तकाटोप-पटु-प्रकोप-स्फुटाट्ट-हासोच्चलिताण्ड-कोशः ।
घोरारि-सेनार्णव-दुर्निवार-महा-भयाद् रक्षतु वीर-भद्रः ॥
पत्त्यश्व-मातङ्ग-रथावरूथ-सहस्र-लक्षायुत-कोटि-भीषणम् ।
 
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अक्षौहिणीनां शतमाततायिनाश्छिन्द्यान्मृडो घोर-कुठार-धारया ॥
निहन्तु दस्यून् प्रलयानिलार्च्चिर्ज्ज्वलन् त्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
शार्दूल-सिंहर्क्ष-वृकादि-हिंस्रान् सन्त्रासयत्वीश-धनुः पिनाकः ॥
दुःस्वप्न-दुःशकुन-दुर्गति-दौर्मनस्य-दुर्भिक्ष-दुर्व्यसन-दुःसह-दुर्यशांसि ।
उत्पात-ताप-विष-भीतिमसद्-गुहार्ति-व्याधींश्च नाशयतु मे जगतामधीशः॥
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