पूजा के लाभ:-
पौराणिक काल से जुड़ा होली का महत्व होली पर्व एवं होली पूजन का महत्व युगों युगों से चला आ रहा है. त्रेता युग से ही होली का रंग दिखाई देता है राजा रघु के समय से ही इस पर्व को देखा जाता है, जहां भगवान के धूली वंदन से भी इसे चाहा है. प्राचीन काल से ही होली का पर्व कई दिनों पूर्व से ही आरंभ हो जाता है. भगवान श्री कृष्ण और शिव दोनों का ही स्वरुप इस पर्व से संबंधित है जहां मथुरा में इसका रंग देख्ने को मिलता है वैसे ही काशी में भी इस पर्व की अनोखी छटा देखने को मिलती है. होली का आरंभ फाल्गुन माह के साथ हो जाता है और देश भर में होली के अवसर पर धार्मिक और सांकृतिक उत्सव आरंभ हो जाते है। होली के दिन, लोग दोस्तों, परिवार और पड़ोसियों से मिलते हैं और एक-दूसरे पर रंग लगाते हैं, इसलिए इस दिन को रंगों का त्योहार भी कहा जाता है. ऐसा माना जाता है कि हर रंग अलग-अलग चीजों का प्रतीक होता है. उदाहरण के लिए, लाल प्रेम और उर्वरता का प्रतीक है, हरा रंग नई शुरुआत का प्रतीक है और नीला भगवान कृष्ण के रंग का प्रतिनिधित्व करता है. वहीं प्रेम का रंग राधा जी में समाया हुआ है अत: इस समय पर भगवान को अर्पित किया गया रंग जीवन में सभी रंगों को भर देने वाला होता है. होली पूजा करने का महत्व यह है कि ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से व्यक्ति अपने सभी भयों पर विजय प्राप्त कर सकता है। श्रीबांकेबिहारी मंदिर का इतिहासः सन् 1860 ई. में निर्मित श्रीबाँके बिहारी जी के मंदिर में स्थापित प्रतिमा को स्वयं श्री कृष्ण भगवान ने अपने अनंत भक्त स्वामी हरिदास को प्रसिद्ध निधिवन में प्रदान की थी। श्री हरिदास जी की भक्ति से प्रसन्न भगवान कृष्ण ने श्रीराधा जी समेत साक्षात् उन्हें दर्शन प्रदान किए। दर्शनोपरांत जब भगवान अदृश्य हुए तो काले रंग की अपने आकार की मूर्ति में यहीं विराजमान हो गए।
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