वहां से लौटते वक्त उनकी भेंट हरि दास के वट की पुत्री सत्यवती से हईु । वह बहतु ही सुंदर थी। राजा शांतनु हरि दास के पास जाकर उसका हाथ मांगते है, परन्तु वह राजा के प्रस्ताव को ठुकरा देता है और कहता है कि - महाराज! आपका ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत है। जो आपके राज्य का उत्तराधि कारी है, यदि आप मेरी कन्या के पुत्र को राज्य का उत्तराधि कारी बनाने की घोषणा करें तो मैं सत्यवती का हाथ आपके हाथ में देने को तैयार हूं। परन्तु राजा शांतनु इस बात को मानने से इंकार कर देते है। ऐसे ही कुछ समय बीत जाता है, लेकि न वे सत्यवती (मत्स्यगंधा) को न भूला सके और दि न-रात उसकी याद में व्याकु ल रहने लगे। यह सब देख एक दि न देवव्रत ने अपने पि ता से उनकी व्याकु लता का कारण पूछा।
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सब कुछ जानने पर देवव्रत स्वयंके वट हरि दास के पास गए और उनकी जि ज्ञासा को शांत करने के लिए गंगा जल हाथ में लेकर शपथ ली कि 'मैं आजीवन अवि वाहि त ही रहूंगा'। देवव्रत की इसी कठि न प्रति ज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पि तामह पडा़। तब राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को इच्छा मृत्यु का वरदान दि या। महाभारत के युद्ध की समाप्ति पर भीष्म पि तामह ने अपना शरीर त्याग दि या। इसलिए माघ शुक्ल अष्टमी को उनका नि र्वा ण दि वस मनाया जाता है। माना जाता है कि इस दि न भीष्म पितामह की स्मृति के नि यमि त्त जो श्रद्धालु कु श, ति ल, जल के साथ श्राद्ध अर्पण करता है, उसे संतान तथा मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है और पाप नष्ट हो जाते हैं।
भीष्म अष्टमी की व्रत विधि
● भीष्म अष्टमी की सुबह स्नान आदि करने के बाद यदि संभव हो तो कि सी पवि त्र नदी या सरोवर के तट पर स्नान करना चाहिए।
● यदि नदी या सरोवर पर न जा पाएंतो घर पर ही विधि पूर्वक स्नानकर भीष्म पि तामह के नि मि त्त हाथ में ति ल, जल आदि लेकर जनऊे को दाएंकंधे पर लेकर तथा दक्षिण कि ओर मुख कर के निम्नलिखित मंत्रों से जाप करना चाहि एवैयाघ्रपदगोत्राय सांकृ त्यप्रवराय च। गंगापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे।। भीष्म: शान्तनवो वीर: सत्यवादी जितेन्द्रि य:। आभि रभि दर् वाप्नोतु पुत्रपौत्रोचि तां क्रि याम्।।
● इसके बाद जनऊे को बाएंकंधे पर लेकर इस मंत्र से गंगापुत्र भीष्म को अर्घ्य देना चाहि एवसूनामवताराय शन्तरोरात्मजाय च। अर्घ्य दं दामि भीष्माय आबालब्रह्मचारि णे।।
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