मेले का समापन रंगभरनी एकादशी को पंचकोसीय वृंदावन की परिक्रमा से होगा। इसका फैसला महंत राजेंद्रदास महाराज, महंत रामजीदास महाराज, महंत फूलडोलबिहारी दास महाराज, महंत धर्मदास महाराज, महंत मोहनदास, गौरीशंकर दास, रामकिशोरदास, महंत हरशिंकर दास महाराज के द्वारा लिया गया है।
वृंदावन कुंभ का इतिहास
इस पवन कुंभ को वैष्णव कुंभ के नाम से भी जमा जाता है। यदि धर्म गुरुओं की माने तो इस कुंभ का इतिहास बहुत पुराना है। साधु समाज इस मेले एतिहासिकता पाँच हज़ार साल पुरानी बताते हैं। कृष्ण भक्तों के लिए लिए यह वृंदावन की भूमि पवित्र है। यमुना जल को यहाँ चरणामृत की तरह पूजा जाता है। इसलिए यमुना स्नान को यहां कुंभ स्नान की तरह माना जाता है। संतों की मानें तो उनके अनुसार भागवत पुराण में इस बात का उल्लेख किया गया है कि जब समुद्र मंथन किया जा रहा था तो उसमें से जो अमृत कलश प्रकट हुआ वह वरुण जी सबसे पहले लेकर के वृंदावन ही आए थे। इसके बाद में वह एक वृक्ष पर जा बैठे हैं और वहां बैठने के दौरान कलश में से कुछ बूंदे उस वृक्ष के पास गिरीं जिसके बाद यह भूमि पवित्र मानी गई।
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इससे जुड़ी एक और कथा है कि वृंदावन में एक कुंड था। जिसमें कालिया नाम का एक नाग रहता था। उसके विष के कारण आसपास के सभी जीव-जंतु, पेड़, पौधे नष्ट हो गए थे। सबको बचाने के लिए भगवान श्री कृष्ण इस नदी में कूद गए थे। ऐसा माना जाता है कि इससे अमृतत्व इस नदी में जा मिला और तब से इस कुंभ का शुभारंभ हुआ।
वृन्दावन को कहा जाता है देवलोक का कुंभ
वैष्णवों के लिए यमुना नदी गंगा की ही तरह एक पवित्र नदी है। गंगा नदी तो हरि के चरणों से निकलकर विष्णुपदी के नाम से जानी जाती है। वहीं यमुना नदी खुद श्रीकृष्ण की कई पत्नियों में एक मानी जाती हैं। ऐसा माना भी जाता है कि यमुना की प्राचीनता गंगा से अधिक है। इसलिए साधु समाज में वृंदावन के कुंभ को देवलोक के कुंभ के नाम से भी जाना जाता है।
धनि धनि श्रीवृन्दावन धाम॥
जाकी महिमा बेद बखानत, सब बिधि पूरण काम॥
आश करत हैं जाकी रज की, ब्रह्मादिक सुर ग्राम॥
लाडिली लाल जहाँ नित विहरत, रतिपति छबि अभिराम॥
रसिकनको जीवन धन कहियत, मंगल आठों याम॥
नारायण बिन कृपा जुगलवर, छिन न मिलै विश्राम॥
जय जय श्री वृंदावन धाम।
हरे कृष्ण!!
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