क्या महत्व हैं इस स्थान का:
इस पवित्र स्थान पर देह त्यागते वक्त माता सति की जीभ गिरी थी। ज्वालादेवी मंदिर का निर्माण सबसे पहले यानि सतयुग में महाकाली के परमभक्त राजा भूमि चंद ने अपने स्वप्न से प्रेरित होकर करवाया था। इसके बाद माना जाता है कि इस मंदिर की खोज पांडवों ने की थी। इसके बाद यहां गुरुगोरखनाथ घोर तपस्या की और माता से वरदान और आशिर्वाद प्राप्त किया। इसके पश्चात फिर से सन् 1835 में राजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने इस मंदिर का पुन: निर्माण करवाया था।
क्यों अनोखा है यह मंदिर:
हिंदु मंदिरों में अक्सर देखा जाता हैं कि पत्थर की या किसी प्रकार की धातु से निर्मित प्रतिमा की पूजा की जाती हैं। मगर देवी का यह मंदिर अन्य मंदिरों की तुलना में अलग हैं क्योंकि यहां पर किसी प्रकार की कोई मूर्ति या चित्र की पूजा नहीं होती हैं , बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं को पूजा जाता हैं। ये नौ ज्वालाएं माता के नौ स्वरुपों के प्रतीक के रुप में प्रचलित हैं। मंदिर के भीतर जो सबसे बड़ी ज्वाला जल रही हैं वह ज्वाला देवी हैं और अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में माँ अन्नपूर्णा, माँ विध्यवासिनी, माँ चण्डी देवी, माँ महालक्ष्मी, हिंगलाज माता, सरस्वती माता, अम्बिका देवी एंव माँ अंजी मंदिर में स्थित हैं।
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आखिर कहां से निकल रही हैं ये ज्वालाएं:
हज़ारों सालो से धरती के गर्भ से निकल रही इन ज्वालाओं के रहस्य का खुलासा करने हेतु विश्व भर से कई भू-वैज्ञानिक आए , मंदिर के तल तक खुदाई करवाई गई। यही नहीं ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान भी यह जानने की बहुत कोशिश की गई कि आखिर ज़मीन के नीचे से इतनी मात्रा में यह प्राकृतिक गैस निकल कैसे और कहां से रही है। मगर आज तक इस रहस्य को कोई सुलझा नहीं पाया हैं। अब के आप पर निर्भर करता हैं कि आप इसको विज्ञान मानेंगे या चमत्कार।
बादशाह अकबर ने पानी ड़ालकर किया था ज्वाला बुझाने का प्रयास:
अकबर ने माता की परीक्षा लेने या गलत नियत से उस स्थान को क्षति पहुंचाने का प्रयास किया। सबसे पहले उसने पूरे मंदिर में अपनी सेना से पानी डलवाया, लेकिन माता की ज्वाला नहीं बुझी। कहते हैं कि तब उसने एक नहर खुदवाकर पानी का रुख ज्वाला की ओर कर दिया लेकिन तब भी वह ज्वाला नहीं बुझी। तब जाकर अकबर को यकीन हुआ और उसने वहां सवा मन सोने का छत्र चढ़ाया लेकिन माता ने इसे स्वीकार नहीं किया और वह छत्र गिरकर किसी अन्य पदार्थ में परिवर्तित हो गया। मगर आज तक यह नहीं पता चल पाया कि वह धातु कौनसा हैं। आप आज भी अकबर का चढ़ाया वह छत्र ज्वाला देवी मंदिर में देख सकते हैं।
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