जब हम मंदिर में जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है, चरणामृत को देने का क्या महत्व है, शास्त्रों में कहा गया है।
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।
अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप -व्याधियों का शमन करने वाला है तथा औषधि के समान है।
जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता" जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता, जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप चरणामृत बन जाता है।
चरणामृत से सम्बन्धित एक पौराणिक गाथा काफी प्रसिद्ध है जो हमें श्रीकृष्ण एवं राधाजी के अटूट प्रेम की याद दिलाती है। कहते हैं कि एक बार नंदलाल काफी बीमार पड़ गए। कोई दवा या जड़ी-बूटी उन पर बेअसर साबित हो रही थी। तभी श्रीकृष्ण ने स्वयं ही गोपियों से एक ऐसा उपाय करने को कहा जिसे सुन गोपियां दुविधा में पड़ गईं।
श्रीकृष्ण हुए बीमार
दरअसल श्रीकृष्ण ने गोपियों से उन्हें चरणामृत पिलाने को कहा। उनका मानना था कि उनके परम भक्त या फिर जो उनसे अति प्रेम करता है तथा उनकी चिंता करता है यदि उसके पांव को धोने के लिए इस्तेमाल हुए जल को वे ग्रहण कर लें तो वे निश्चित ही ठीक हो जाएंगे। दूसरी ओर गोपियां और भी चिंता में पड़ गईं। श्रीकृष्ण उन सभी गोपियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण थे, वे सभी उनकी परम भक्त थीं, लेकिन उन्हें इस उपाय के निष्फल होने की चिंता सता रही थी।
उनके मन में बार-बार यह आ रहा था कि यदि उनमें से किसी एक गोपी ने अपने पांव के इस्तेमाल से चरणामृत बना लिया और कृष्णजी को पीने के लिए दिया तो वह परम भक्त का कार्य तो कर देगी। परन्तु किन्हीं कारणों से कान्हा ठीक ना हुए तो उसे नर्क भोगना पड़ेगा।
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अब सभी गोपियां व्याकुल होकर श्रीकृष्ण की ओर ताक रहीं थी और किसी अन्य उपाय के बारे में सोच ही रहीं थी कि वहां कृष्ण की प्रिय राधा आ गईं। अपने कृष्ण को इस हालत में देख के राधा के तो जैसे प्राण ही निकल गए हों।जब गोपियों ने कृष्ण द्वारा बताया गया उपाय राधा को बताया तो राधा ने एक क्षण भी व्यर्थ करना उचित ना समझा और जल्द ही स्वयं के पांव धोकर चरणामृत तैयार कर श्रीकृष्ण को पिलाने के लिए आगे बढ़ी।
राधा जानतीं थी कि वे क्या कर रही हैं। जो बात अन्य गोपियों के लिए भय का कारण थी ठीक वही भय राधा को भी मन में था लेकिन कृष्ण को वापस स्वस्थ करने के लिए वह नर्क में चले जाने को भी तैयार थीं।आखिरकार कान्हा ने चरणामृत ग्रहण किया और देखते ही देखते वे ठीक हो गए, क्योंकि वह राधा ही थीं जिनके प्यार एवं सच्ची निष्ठा से कृष्णजी तुरंत स्वस्थ हो गए। अपने कृष्ण को निरोग देखने के लिए राधाजी ने एक बार भी स्वयं के भविष्य की चिंता ना की और वही किया जो उनका धर्म था।
राधा-कृष्ण का कभी विवाह ना हुआ, लेकिन उनका प्यार इतना पवित्र एवं सच्चा था कि आज भी दोनों का नाम एक साथ लेने में भक्त एक क्षण भी संदेह महसूस नहीं करते। उनके भक्तों के लिए कृष्ण केवल राधा के हैं तथा राधा भी कृष्ण की ही हैं।
राधा-कृष्ण की इस कहानी ने चरणामृत को एक ऐतिहासिक पहलू तो दिया ही, लेकिन आज भी चरणामृत को प्रभु का प्रसाद मानकर भक्तों में बांटा जाता है। पीतल के बर्तन में पीतल के ही चम्मच से, थोड़ा मीठा-सा यह अमृत भक्तों के कंठ को पवित्र बनाता है।
जब भगवान का वामन अवतार हुआ, और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे में ऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल में से जल लेकर भगवान के चरण धोए और फिर चरणामृत को वापस अपने कमंडल में रख लिया,वह चरणामृत गंगा जी बन गई, जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है,
जब हम बाँके बिहारी जी की आरती गाते है तो कहते है - "चरणों से निकली गंगा प्यारी जिसने सारी दुनिया तारी"
धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है।
कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया, बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं, चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।
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