श्राद्ध पक्ष में कौवों को भक्ति और विनम्रता से यथाशक्ति भोजन कराने की बात विष्णु पुराण में कही गई है। इसी के चलते कौए को पितरों का प्रतीक मानकर श्राद्ध पक्ष में सोलह दिनों तक भोजन कराया जाता है।
सूरज निकलते ही घर की मुंडेर पर बैठें कौवों की 'कांव-कांव' शुरू हो जाती हैं, जो सूरज ढलने तक जारी रहती हैं। शाम को कौए अपने बसेरे की तरफ उड़ जाते हैं। वैसे कहानियों के अनुसार कौआ हमारी सोच में धूर्त और चालाक पात्र की तरह उभरता है। वह कर्कशता के प्रतीक बन गए हैं।
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भादौ महीने के 16 दिन कौआ तकरीबन हर घर की छत का मेहमान बनता है। यह 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं। कौआ व पीपल को पितृ प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौए को खाना और पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है। कौए को पितरों का प्रतीक क्यों समझा जाता है, यह अभी भी शोध का विषय बना हुआ है।
दरअसल कौआ एक विस्मयकारक पक्षी है। इनमें इतनी विविधता है कि इस पर एक 'कागशास्त्र' तक की रचना की गई है। रामायण के एक प्रसंग के अनुसार भगवान राम और सीता पंचवटी में एक वृक्ष के नीचे बैठें थे। श्रीराम सीता माता के बालों में फूलों की वेणी लगा रहे थे। यह दृश्य इंद्रपुत्र जयंत देख नहीं सके। ईष्र्यावश उन्होंने कौए का रूप धारण किया और सीताजी के पैर पर चोंच मारी। राम ने उन्हें सजा देने के लिए बाण चलाया ही और बाण से जयंत की एक आंख फोड़ दी, तब से कौए को एकाक्षी समझा जाता है।
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'मादा' कौआ अपने बच्चे व कौए के लिए जान देती है। अगर कौआ हमारे आंगन में बोल रहा है तो समझों कोई मेहमान आने वाला है। यह पुराने समय से चली आ रही धारणा है।
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