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मोक्षदायिनी है गया- भारत में पिंडदान कई जगह होता है लेकिन “गया” में पिंडदान का विशेष महत्व है। गया मोक्ष की भूमि कहलाती है। विष्णु पुराण और वायु पुराण में इस बात का उल्लेख है कि जो व्यक्ति पिंडदान करने के लिए गया जाता है उनके पूर्वजों को स्वर्ग मिलता है। क्योंकि भगवान विष्णु यहां स्वयं पितृदेवता के रूप में मौजूद है।
गया में पिंडदान का के पीछे कई कथाएं हैं प्रचलित-
बिहार के फल्गु तट पर बसे गया में पिंडदान व श्राद्ध कर्म करना सबसे फलदायी माना जाता है। इसकी पीछे कई धार्मिक कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था।
एक और कथा के अनुसार भस्मासुर के वंश में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या की और ब्रह्मा जी से वरदान मांगा कि वह देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और उसके दर्शनभर से लोगों के पाप दूर हो जाए। लेकिन इस वरदान के मिलने के बाद पाप बढ़ने लगा। लोग पाप करते और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त हो जाते। यह सब देखकर देवता बहुत चिंतित हुए और इससे बचने के लिए देवताओं ने गयासुर से यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग की। जिस पर गयासुर लेट गया और उसका शरीर पांच कोस तक फैल गया और तब देवताओं ने यज्ञ किया। इसके बाद देवताओं ने गयासुर को वरदान दिया कि जो भी व्यक्ति इस जगह पर आकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म और तर्पण करेगा उसके पूर्वजों को मुक्ति मिलेगी। तबसे इस जगह को गया के नाम से जाना जाता है। यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने के लिए पिंडदान के लिए गया आते हैं।
पंड़िता के अनुसार फल्गु नदी के तट पर ही पिंडदान होना चाहिए। पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है। गरूड़ पुराण में लिखा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर चलने वाले एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनते जाते हैं। जानकारों के मुताबिक गया में विभिन्न नामों से 360 वेदियां थी जहां पिंडदान किया जाता था, इनमें से 48 बची हैं। इस जगह को मोक्षस्थली कहा जाता है। हर साल पितपक्ष में यहां 17 दिन के लिए मेला लगता है। कहा जाता है कि पितृपक्ष में फल्गु नदी के तट पर विष्णुपद मंदिर के करीब और अक्षयवट के पास पिंडदान करने से पूर्वजों को मुक्ति मिलती है।
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