प्राचीन मान्यताओं के अनुसार विंध्य पर्वत की एक कथा बहुत ही प्रचलित है। जिसके अनुसार पर्वतराज हिमालय को सबसे उच्चा होने का गर्व था जिससे विंध्य पर्वत को ईर्ष्या होने लगी थी। विंध्य पर्वत स्वयं को छोटा व अपमानित महसूस करने लगा था। अपनी आत्मग्लानि को दूर करने के लिए और सबसे उच्च पर्वत बनने के लिए माँ विंध्यवासिनी की आराधना करनी प्रारम्भ कर दी। तप से प्रसन्न होकर देवी के साथ-साथ उनके चरणों में स्थित त्रिदेवों ने उन्हें आशीर्वाद प्रदान किया जिससे वह दिनों-दिन बढ़ने लगे।
अक्षय तृतीया पर देवी विंध्यवासिनी के श्रृंगार पूजा से जीवन की समस्याएं होंगी दूर, मिलेगा धन लाभ का आशीर्वाद : 26-अप्रैल-2020
नित्य नई ऊंचाई को छूते-छूते वह एक दिन सूर्य देव के रथ के पहियों तक जा पहुंचे जिससे दिनकर का रथ रुक गया और सारे संसार में हाहाकार मच गया। देव, दानव, पशु, पक्षी, मनुष्य सभी विचलित हो उठे। इस समस्या का समाधान निकालने के लिए त्रिदेव ने देवताओं को विंध्य पर्वत के गुरु अगस्त ऋषि से सहायता लेने को कहा। अगस्त ऋषि शिष्य को मनाने के लिए राज़ी हो गए और जैसे ही वह विंध्य पर्वत के समक्ष पहुंचे, अपने गुरु को प्रणाम करने के लिए विंध्य पर्वत दंडवत प्रणाम करने के लिए नीचे झुके।
उनके झुकते ही दिनकर का रथ पुनः पर्याप्त रूप से चल पड़ा। तथा अगस्त ऋषि ने शिष्य विंध्य को आदेश दिया की जब तक वह वापस न लौटें वह दंडवत मुद्रा में ही रहे। यह कहकर ऋषि दक्षिण की ओर चले गए और कभी वापस नहीं लौटें। माना जाता है की वह आज भी उसी प्रकार गुरु के इंतज़ार में दंडवत मुद्रा धारण किए हुए है। इस प्रकार अगस्त ऋषि ने इस समस्या का समाधान निकाला और सृष्टि को पुनः गति में लाए।
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