1.यह शक्तिपीठ प्राचीनकाल से ही ऋषि मुनियों का तप स्थल माना गया है । कहते हैं की देवासुर संग्राम के समय त्रिदेवों ने यहाँ कठोर तपस्या की थी जिससे उन्हें देवी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था । कथन अनुसार आज भी ब्रह्मा, विष्णु और महेश गर्भ गृह से निकलने वाले जल से भरे कुंड में तपस्या कर रहे हैं।
2.हिमालय पर्वत के प्रति अपनी ईर्ष्या को संतुष्ट करने व पर्वतों में सबसे ऊंचा बनने के लिए विंध्य पर्वत ने देवी विंध्यवासिनी के समक्ष कठोर तपस्या की थी जिसके बाद वह दिनों-दिन बढ़ने लगे थे। उनकी लम्बाई इतनी बढ़ गयी थी कि उनके पर्वत की चोटी से दिनकर का रथ रुक गया था जिससे सारे संसार में हाहाकार मच उठा था।
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3.मान्यताओं के अनुसार अपने गुरु अगस्त ऋषि के सम्मान में आज भी विंध्य पर्वत दंडवत प्रणाम की मुद्रा में विराजित अपने गुरु का इंतजार कर रहे हैं। विंध्यवासिनी देवी का यह मंदिर पर्वत के ईशान कोण पर स्थित है जिसे धर्म का स्थान भी कहा जाता है।
4.देवी विंध्यवासिनी को बिन्दुवासिनी भी कहा जाता है क्यूंकि इस स्थान से पूरे भारतवर्ष में समय का निर्धारण होता है। इस स्थान को सिद्धशक्तिपीठ भी कहा जाता है क्यूंकि जहाँ-जहाँ देवी सती के अंग गिरे वह शक्तिपीठ बन गए परन्तु यहाँ देवी अपने पूर्ण आकर में विराजमान हैं।
5.इस स्थान पर लक्ष्मी स्वरूप कमल पर विराजित देवी विंध्यवासिनी, संसार में अंधकार को मिटाकर प्रकाश प्रदान करने वाले सूर्य देव तथा अपनी शीतलता से सबका मन मोह लेने वालें चंद्रदेव तीनों ही एक साथ विराजित हैं।
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