जीवन को समर्थ और सार्थक करती है गुरुकृपा
ख्याति और महत्वाकांक्षा की दौड़ में तुम्हारी ऊर्जा बाहर की ओर बहती है-वस्तुओं की ओर, लक्ष्यों की ओर, लोगों की ओर। चूंकि तुम्हारी ऊर्जा सतत बाहर की ओर बह रही होती है, इसलिए जल्दी ही तुम ऊर्जा से रिक्त हो जाते हो...और रिक्तस्थान पर नकारात्मकता अपना आधिपत्य स्थापित कर लेती है।
ऊर्जा बाहर तो जाती है, पर कभी भीतर लौटती नहीं -- तुम बस ऊर्जा को बाहर उलीचते चले जाते हो। रोज ऊर्जा निचुड़ती जा रही है -- फिर मृत्यु आ जाती है। मृत्यु और कुछ नहीं है, बस ऊर्जा का पूरी तरह खर्च हो जाना है!
जीवन में सबसे बड़ा चमत्कार है इस बात को समझ जाना, और ऊर्जा को भीतर की ओर मोड़ लेना। यह भीतर की ओर मुड़ना ही संन्यस्त हो जाना है! तुम्हें संसार को, संसार के अपने कामों को छोड़ नहीं देना है -- बस अपने कामों को एक अलग ढंग से करना है। सब कुछ करो, लेकिन अपने केंद्र में बने रहो!
बाहर सब कुछ करो, लेकिन फिर वापस अपने भीतर लौट आओ। फिर तुम ऊर्जा का एक कुंड बन जाते हो, भंडार बन जाते हो। तुम्हारी ऊर्जा बाहर की ओर गति करे, फिर वापस अपने पर लौट आए तो वह तुम्हें शक्ति का एक पुंज बना देती है।
फिर यह ऊर्जा तुम दूसरों से जितना भी बांटो, वह कभी क्षीण नहीं होगी -- बल्कि जितना तुम बांटोगे, उससे हजार गुना होकर तुम पर लौट आएगी!
लेकिन यह कोई सामान्य कार्य नहीं है...यह सूखे कुंए से जल निकालने जैसा है...यह उतरे हुए नल से पानी खींचने जैसा है...यह बिना केन्द्रक के परिक्रमा जैसा है....तुम बिना पतवार के नाव खेना चाहते हो...लेकिन नष्टउर्जा के कारण यह सब सम्भव नहीं हो पाता है....इस नष्टऊर्जा को केवल वही जाग्रत कर सकता है, जो स्वयं जाग्रत हो। जो ऊर्जा का असीम भंडार हो। जो ईश्वर से भी पहले पूजनीय हो। जिसकी अपार शक्ति से सब जगमगाता है, वह भी उस गुरु सत्ता पर ही निर्भर होता है....
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इसलिए बिना गुरु के कल्याण सम्भव नहीं होता...जिसको गुरुकृपा प्राप्त न हो, वह अधूरा शक्तिहीन होकर जीने के लिए अभिशप्त होता है...
इसीलिए गुरु के सहाय से ही सब बाधाएं नष्ट होती हैं, ऊर्जाएं स्वस्थ होकर हम तक पहुंचती हैं और समस्त शास्त्र, आगम निगम उस गुरुतत्त्व की वंदना में खड़े होते हैं...समस्त देव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व आदि उन गुरु के चरणों से आशीष पाते हैं....
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात्परब्रह्म: तस्मै श्री गुरवे नम:॥
असार संसार में गुरु के बिना जीवन भंवर में फंसी नाव की भांति डूबने वाला होता है। जैसे भंवर में फंसी नाव को कुशल मल्लाह ही पार लगा सकता है, वैसे ही संसार की विषमताओं के थपेडे खाते हुए, कष्ट सहते हुए, विमूढ़ता भरी लहरों के भंवर में हिचकोले खाती जीवन नैय्या को सद् गुरु ही पार लगा सकते हैं।
गुरु न मिलें तो जीवन बिना खिवैय्या की नाव जैसा है, जिसे न तो यह पता है कि धारा किधर की है और न ही यह पता है कि मुझे जाना किधर है। न तो यह पता है कि लहरों का दबाव किधर है और न ही यह पता है कि शांत जलराशि कहां बह रही है। बस फंस गई तो फंस गई, अब तो निकलना मुश्किल ही है। लेकिन जब समय रहते सद् गरु की कृपा हो जाए तो सच्चे शिष्य को किसी भी प्रकार का कष्ट छू भी नहीं पाता। क्योंकि सद्गुरु की दृष्टि सदैव उसकी ओर लगी रहती है। ...और जिस पर सद्गुरु की कृपा हो गई, उसे और कुछ की आवश्यकता ही न रही। क्योंकि सच्चे गुरु की कृपा के बाद जीवन की सहजता का, ईश्वर की समीपता का आत्मिक अहसास होने लगता है, जो इस नश्वर संसार में आत्मा की अमरता का बोध कराता है और पंच कोषों की पूर्णता का आनंद दिलाता है। ऐसी कृपा के बाद कुछ शेष नहीं बचता। ...बचता है केवल प्रकाश और आनंद। ... और यही जीवन का सार है।...और यहीं से शुरू हो जाती है ऊर्जा की अंतर्यात्रा...जो तुम्हें अनंत के स्रोतों की शक्ति से परिपूर्ण कर देती है...उसका अजस्र प्रवाह तुम्हें जीवन देता है...अपरिमित ऊर्जा तुम्हें प्रभासित कर देती है और जीवन धन्य हो जाता है, सफल हो जाता है...सार्थक हो जाता है।....आज हम उस परम पावन गुरु के आशीष को पाने के लिए श्री गुरु चरणों में स्वयं को समर्पित करते हैं और उनकी कृपा दृष्टि बनी रहे ऐसी प्रार्थना करते हैं...
शुभ गुरुपूर्णिमा
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