काँवड़ यात्रा का इतिहास (history of kanwad yatra):
कावड़ यात्रा का प्राचीन इतिहास भगवान परशुराम से जुड़ा है। भगवान परशुराम शिव जी के भक्त थे। मानते हैं कि उन्होंने कांवड़ लेकर उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के समीप "पुरा महादेव" गए और गढ़मुक्तेश्वर से गंगा के जल को लेकर भगवान शिव को जलाभिषेक किया था। उस वक्त सावन मास ही चल रहा था। तब से सावन मास में कांवड़ यात्रा करने की परंपरा की शुरुआत हो गई और उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड समेत अन्य राज्य में शिव भक्त हर वर्ष सावन के दिनों में कांवड़ यात्रा निकालते हैं।काँवड़ यात्रा तीन प्रकार की होती है:
1. खड़ी काँवड़ यात्रा
2. झांकी काँवड़ यात्रा
3. डाक काँवड़ यात्रा
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काँवड़ यात्रा करने के लिए करना होगा यह नियम का पालन:
1. लोग कहते हैं कि काँवड़ की यात्रा करना बहुत ही कठिन है और इनके नियम भी बेहद सख्त हैं। जो भी व्यक्ति नियमों का पालन (follow the rules) नहीं करता उनकी कावड़ यात्रा अधूरी मानी जाती है।
2. कांवड़ यात्रा जब किया जाता है तो किसी भी तरह का नशा(addiction) नहीं करना चाहिए।
3. काँवड़ यात्रा के वक्त मांस मदिरा(meet licker) व तामसिक भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए।
4. कावड़ यात्रा के वक्त पैदल ही चलने का विधान है। अगर आप कोई भी फल या मन्नत पूरी होने के बाद यात्रा करते हैं तो उसी मन्नत( vow) के अनुसार ही यात्रा करें।
5. इस यात्रा में काँवड़ को चर्म(foreskin)से संबंधित कोई वस्तु को नहीं छूना चाहिए।
6. काँवड़ को चारपाई व खटिया का प्रयोग करना भी वर्जित है।
7. काँवड़ यात्रा के दौरान कोई साज-सज्जा या श्रृंगार का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
8. इस यात्रा में भक्त, काँवड़ को ना तो जमीन में रखता है और ना ही टांगता(hang) है। अगर कांवरिये को भोजन पानी करना है या आराम(rest) करना है तो वह अपने कांवड़ को किसी और को दे देगा या तो कोई स्टैंड में रखेगा।
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