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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मृत्यु के देवता यमराज ने नन्हें से जिज्ञासु बालक नचिकेता को ब्रह्मविद्या का ज्ञान इसी दिन दिया था। कालान्तर में त्रेतायुग में इस पर्व से 14 साल के वनवास और रावण वध के उपरांत श्रीराम की अयोध्या वापसी तथा द्वापर में श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर वध का प्रसंग भी जुड़ गया। महाभारत के अनुसार 12 वर्षों का वनवास व एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा होने पर दीपोत्सव मनाया गया था। कुछ अन्य पौराणिक विवरणों के मुताबिक भगवान विष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर इसी दिन आतातायी हिरण्यकश्यप का वध किया था। महासती सावित्री ने भी इसी दिन अपने अपराजेय संकल्प द्वारा यमराज के मृत्युपाश से पति को मुक्त कराया था। ज्योतिपर्व के साथ जुड़े पावन प्रसंगों की एक सुदीर्घ शृंखला है जो अज्ञान के अंधकार से लड़ने की हमारी अभिलाषा और जिजीविषा की परिचायक है।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक जैन तीर्थंकर भगवान महावीर ने इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था और देवो ं ने दीप जलाकर उनकी स्तुति की थी। सिखों के लिए भी दिवाली की पवन तिथि अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। इसके अलावा 1619 में दिवाली के दिन ही सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को कारागार से रिहा किया गया था। स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों ही दीपावली के दिन ही हुआ था। भारतीय संस्कृति के महान जननायक व आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द का देहावसान भी दीपावली के दिन हुआ था। यही नहीं, प्राचीन भारत के यशश्वी सम्राट राजा वीर विक्रमादित्य का राज्याभिषेक भी दीपावली के दिन ही हुआ था।
दीपावली की पांच दिवसीय पर्व शृंखला के पहले पर्व त्रयोदशी को आयुर्वेद के जनक आचार्य धन्वंतरि की जयंती मनाई जाती है। सागर मंथन के दौरान इसी दिन अमृत घट लेकर आयुर्वेद के जनक आचार्य धन्वंतरि प्रकट हुए थे। स्कंद पुराण के अनुसार त्रयोदशी की संध्या में यमदीप दान के उपरान्त मां लक्ष्मी व कुबेर की पूजा के साथ आचार्य धन्वंतरि का पूजन अनुष्ठान किया जाता है। वैद्यगण इस दिन उनसे प्रार्थना करते हैं ताकि उनकी औषधियां आरोग्य प्रदायक हो सकें। इसके अगले दिन नरक-चतुर्दशी को पितरों को दीपदान दिया जाता है। तीसरे दिन महानिशा यानी अमावस्या की रात्रि में दीपोत्सव मनाया जाता है, दीपोत्सव के बाद आने वाली प्रतिपदा प्रारंभ में नवान्न-पूजा का पर्व थी जो बाद में अन्नकूट-पूजा में परिवर्तित हो गई।
इसके अगले दिन कार्तिक शुक्ल को भाईदूज के दिन बहनें भाई को मंगल तिलक कर उनके कल्याण और दीघार्यु की प्रार्थना करती हैं। लोक परम्परा में दीपावली की रात को मुख्य रूप से लक्ष्मी व गणेश के संयुक्त पूजा का विधान है। इसके पीछे मूलत: समृद्धि एवं सद्बुद्धि दोनों की आराधना के साथ श्रेष्ठ मूल्यों एवं आदर्शों की स्थापना का दिव्य भाव निहित है। लक्ष्मी समृद्धि, विभूति एवं सम्पत्ति की देवी हैं और गणपति सदबुद्धि एवं सद्ज्ञान के सर्वसमर्थ देवता। अनेकानेक प्रेरक प्रसंगों से जुड़ा दीपावली का महापर्व श्रेष्ठ जीवनमूल्यों एवं आदर्शों के प्रति संकल्पित होने का शुभ अवसर प्रदान करता है। मगर आत्म आलोक का यह महापर्व आज मात्र देवपूजन के वाह्य कर्मकांड तथा वैभव के प्रदर्शन तक सिमट गया है। पर्व की आलोकपूर्ण प्रेरणाएं लोगों के अंतस को जागृत नहीं करतीं। इस ज्योतिपर्व पर आत्मावलोकन करें तो पाएंगे कि ऋषियों की अमूल्य परंपराओं को विस्मृत करने का खमियाजा हम सब भुगत रहे हैं। हम हंसना भूल गए हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक बाद भी आज भारतीय जनमानस की जो स्थिति है, वह एक व्यापक मोहभंग एवं एक भयंकर मनोवैज्ञानिक संघात की है। समझना होगा कि हमारी महान सनातन संस्कृति में श्री तत्व की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए कोई एक-दो नहीं अपितु पूरे पांच दिवसीय प्रकाशपर्व की परम्परा हमारे मनीषियों ने यूं ही नहीं डाली थी। वैदिक भारत की यह ज्ञान गामिनी धरोहर इस दीपोत्सव का मूल उत्स है। हमारा प्रत्येक आचरण, कर्म और चरित्र आदर्शों से जुड़ा हो, तभी लक्ष्मी की वैभव-विभूति, उनकी श्री संपत्ति से हम परिपूर्ण हो सकेंगे। आइए इस दीप पर्व पर हम सब भारतवासी सामूहिक रूप से राष्ट्रोत्थान में सच्ची निष्ठा से संकल्पित हों तभी इस दीपपर्व को मनाना सार्थक होगा।
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