सूर्य और चंद्रादि ग्रहों के अपनी कक्षा मार्ग पर परिभ्रमण के काल में अन्य ग्रह के आने से और उसके छाया आच्छादन से होने वाली ब्रह्मांण्डीय घटना को ग्रहण कहा जाता है। ऐसा होता अनेक ग्रहो के साथ है, लेकिन दृष्यमान सूर्य और चंद्रमा ही होते हैं।
क्यों कि ग्रहों की गति इस कालखंड में विचित्र और भयकारी भ्रम उत्पन्न कर रही है और मनुष्य उसके कारण अज्ञात रोग से कालकवलित हो रहा है। उसके साथ साथ भूकंपादि से भी मानव डरा हुआ है। यह ग्रहों की ही गति है कि एक ओर कोरोना संकट से लॉकडाउन हो रहा है और उस पर भी प्राकृतिक दुर्घटनाओं ने समस्त मानव संस्कृति को भयभीत कर रखा है। दुर्भिक्ष नहीं है, फिर भी दुर्भिक्ष जैसे हालात हैं। सब एक दूसरे से डरे हुए हैं और भय की छाया में जीने को विवश हैं। उसके साथ ही विश्वभर में युद्ध जैसे संकट के भी हालात दिखाई देते हैं। इस समय पूरा विश्व संकट से जूझ रहा है। ऐसे में 5 जून 2020 के ज्येष्ठ पूर्णिमा के मांद्य चंद्र और फिर 21 जून 2020 आषाढ की अमावस्या को सूर्य ग्रहण और फिर 5 जुलाई 2020 को आषाढ पूर्णिमा को फिर मांद्य चंद्र का होना और अधिक भय का वातावरण बनाते हैं। तो आईए आज चर्चा करते हैँ सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण के इतिहास व उसके वैज्ञानिक और ज्योतिषीय कारणों पर...क्या मांद्य चंद्र, ग्रहण की श्रेणी में आता है या भ्रम फलाया जा रहा है....और सूर्य ग्रहण का क्या प्रभाव होगा। इन्हीं प्रश्नों पर प्रकाश डाल रहे हैं श्री पीतांबरा विद्यापीठ सीकरीतीर्थ मोदीनगर के अधिष्ठाता और राष्ट्रीय ज्योतिष परिषद के अखिल भारतीय अध्यक्ष आचार्य चंद्रशेखर शास्त्री ।
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ग्रहणविज्ञान के प्रथम शोधकर्ता ऋषि अत्रि
सनातन शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि के विस्तार के लिए ऋषियों को गोत्रकर्ता बनाया और सबको अलग अलग दायित्व दिया। ये ऋषिगण सनातन के शोधकर्ता और रहस्यों को प्रगट करने वाले थे। इन्हीं में से एक हैं चंद्रवंश के आदिपुरुष अत्रि ऋषि। ऋषि अत्रि को प्रजापति का पद भी प्राप्त था, वे भृगु ऋषि के पौत्र और शुक्र के पुत्र थे। अत्रिय राज्य हिमालय के उस पार था, इसलिए अपवर्त कहा जाता था और अत्रीक नदी के तट पर होने के कारण अत्रिपत्तन कहा जाता था। प्रमुख गोत्रकर्ता ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानसपुत्र थे। अत्रि ऋग्वेद के वैदिक ऋषि हैं। उनका स्थान वैकुंठ भी कहा जाता है। वैदिक काल में ऋषि अत्रि ग्रहण विज्ञान के पहले शोधकर्ता ऋषि थे। उन्होंने ही अपने शोध के बल पर सूर्य के ग्रहण विषय पर सर्वप्रथम ऋग्वेद में ऋचाओं में दी हैं। ऋग्वेद के पांचवें मंडल में इसका वर्णन आता है। देवतागण जब सूर्य को नहीं देख पा रहे थे, चहुओर अंधकार छा गया था और दिन में रात्रि की उपस्थिति थी। ऐसे में सब कार्य रुक गए थे, तब इंद्रादि देव ऋषि अत्रि के पास जाते हैं और उनसे इसका निराकरण चाहते हैं। ऋषि अत्रि अपने वैज्ञानिक विधान से सूर्य का समुद्धार करते हैं।
वेदों और उपनिषदों में ग्रहण कथन
ऋग्वेद में पांचवें मंडल में चालीसवें सूक्त में उसका विवरण इस प्रकार है।-
यत्त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः।
अक्षेत्रविद्यथामुग्धो भुवनान्यदीधयुः।।
स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन्।
गूळ्यं सूर्यं तमसापव्रतेन तुरीयेण ब्रह्मणाविन्ददत्रि।।
मा मामिमं तव सन्तमत्र इरस्या द्रुग्धो भियसा नि गारीत् ।
त्वं मित्रो असि सत्यराधास्तौ मेहावतं वरुणश्च राजा।।
ग्राव्णो ब्रह्मा युयुजानः सपर्यन्कीरिणा देवान्नमसोपशिक्षन् ।
अत्रिः सूर्यस्य दिवि चक्षुराधात्स्वर्भानोरप माया अघुक्षत्।।
यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः ।
अत्रयस्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्नुवन्।। -ऋग्वेद 5.40.5 से 9
ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में भी राहु नाम का कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन अथर्ववेद में केतु का उल्लेख मिलता है, जिसका स्वरूप पुच्छल तारे से मिलता जुलता है। अत्रि ऋषि द्वारा सूर्यग्रहण से मुक्ति कराने के प्रकरण में ग्रहण का कारण स्वर्भानु नामक दैत्य को माना गया है। कालांतर में यही स्वर्भानु राहू कहा गया है। महाभारत और श्रीमद्भागवत में स्वर्भानु के राहू होने की पुष्टि होती है। पंचविंश ब्राह्मण ग्रंथ और अनेक अन्य ग्रंथों में भी उसका वर्णन आता है। लेकिन लगध मुनि कृत वेदांग ज्योतिष में इस पर कोई चर्चा नहीं की गई है। तत्कालीन ज्योतिषीय ग्रंथों में भी राहु केतु का कोई विवरण प्राप्त नहीं होता है। सामवेद के छान्दोग्य ब्राह्मण के भाग छान्दोग्य उपनिषद के आठवें प्रपाठक के तेरहवें खण्ड में एकमात्र प्रवाक में चंद्रमा के राहुग्रहण का वर्णन आता है।
श्यामाच्छबलं प्रपद्ये शबलाच्छ्यामं प्रपद्येऽश्व इव रोमाणि विधूय पापं चन्द्र इव राहोर्मुखात्प्रमुच्य धूत्वा शरीरमकृतं कृतात्मा ब्रह्मलोकमभिसंभवामीत्यभिसंभवामीति।। -छान्दोग्य उपनिषद प्रपाठक 8 खण्ड 13 प्रवाक 1
इस प्रकार राहु केतु को ज्योतिष में बिना किसी स्थान स्वामित्व के जगह मिल गई।
चंद्रमा को वेदों में सोम कहा गया है और नक्षत्रों का पति कहा गया है तथा ऋषि अत्रि का पुत्र कहा गया है। वस्तुतः ग्रहमंडल में चंद्रमा की खोज महर्षि अत्रि ने की है। पद्मपुराण के एक प्रसंग में चंद्रमा को महर्षि अत्रि के नेत्रों के अश्रुओं से उत्पन्न माना है। कथा के अनुसार ब्रह्मा ने अपने मानसपुत्र अत्रि को सृष्टि विस्तार की आज्ञा दी। ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार राहु और केतु चंद्रमा की कक्षा के आरोही और अवरोही पात मात्र हैं, जो पृथ्वी की कक्षा के तल का प्रतिच्छेदन करते हैं। कह सकते हैं कि राहु और केतु चांद्र कक्षा और कांतिवृत्त के दो कल्पिनिक छेदन बिंदू मात्र हैं।
पौराणिक आख्यानों में ग्रहण कथन
पौराणिक आख्यानों में, विष्णु पुराण में समुद्रमंथन की कथा में, राक्षसी सिंहिका के पुत्र राहु का वर्णन आता है, जो देवताओं की पंक्ति में बैठकर समुद्रमंथन से प्राप्त देवमात्र के लिए प्राप्य अमृत को छल से देवरूप धारणकर पी लेता है, जिस पर सूर्य और चंद्र की दृष्टि पड़ती है और उसका भेद खुल जाता है। उसके छल से क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु अपने चक्र से उसका शीश काट देते हैं। लेकिन अमृत पी चुका राहू अमर हो चुका होता है, जिसके सिर को राहु और धड़ को केतु कहा गया है। तब से वे सूर्य और चंद्रमा को ग्रसते हैं, जिसे ग्रहण कहा जाता है। इसे विज्ञान की भाषा में कहें तो देवगण ने अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्रह्मांड पर शोध किया और अपने अपने अनुसार ग्रहों का शोध प्रगट किया। इसे समुद्रमंथन के नाम से जाना गया। हमारे देवगण महान वैज्ञानिक थे और ऋषिगण उनके अनुगामी शोधकर्ता। इस प्रकार समुद्रमंथन के शोध से क्रांतिवृत्त के दो संपात स्थापित हुए, जिन्हें राहु और केतु नाम दिया गया। ये केवल छायामात्र थे, इसलिए इन्हें कोई स्थान भी नहीं दिया गया। यही कारण है कि प्राचीन वैदिक शास्त्रों और ज्योतिषीय ग्रंथों में राहू केतु के उल्लेख नहीं मिलते हैं। केवल राहु केतु ही नहीं, वहां राशियों के उल्लेख भी नहीं मिलते हैं। भारतीय सनातन परंपरा नक्षत्रों पर कार्य करती थी, इसलिए नक्षत्रों के प्रयोग किए गए। लेकिन एलेक्जेंडर के आगमन के बाद राशियों को भी स्थान दिया गया।
महाभारत के शान्तिपर्व में मोक्षधर्मनामक इक्कीसवें अध्याय में ग्रहण पर संदर्भ दिया गया है।
यथा चन्द्रार्कसंयुक्तं तमस्तदुपलभ्यते।
तद्वच्छरीरसंयुक्तं ज्ञानं तदुपलभ्यते।।
यथा चन्द्रार्कनिर्मुक्तः स राहुर्नोपलभ्यते।
तद्वच्छरीरनिर्मुक्तः शरीरी नोपलभ्यते।।
अर्थात् चंद्रमा और सूर्य के संयोग पर जिस प्रकार अंधकार के अस्तित्व का ज्ञान होता है, उसी प्रकार शरीर को प्राप्त होने पर ही आत्मा का ज्ञान होता है और जैसे सूर्य और चंद्रमा के परस्पर पृथक् हो जाने पर अंधकार रूपी राहु अदृश्य हो जाता है, उसी प्रकार शरीर से मुक्त होने पर आत्मा दृश्यमान् नहीं रहती।
ग्रहण क्या है
ग्रहण ब्रह्माण्ड में घटने वाली एक खगोलीय घटना है, जो ग्रहों की गतिशीलता के कारण निरन्तर होती रहती है। यह अवस्था सूर्य और चंद्रादि के मध्य पृथ्वी के आ जाने से बनती है। इसमें कुछ समय के लिए अंधकार व्याप्त हो जाता है। वैसे तो यह प्रक्रिया ब्रह्माण्ड में निरन्तर होती रहती है, क्योंकि सभी ग्रह उपग्रह अपनी कक्षा में परिभ्रमण करते हुए सामान्यतया एक दूसरे के सामने आ ही जाते हैं, लेकिन पृथ्वी पर यह केवल सूर्य और चंद्र के कारण दृश्यमान हो पाती है। इसीलिए ग्रहण दो ही प्रकार के कहे गए हैं। सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण। इस प्रकार चंद्रमा और सूर्य के मध्य पृथ्वी होन पर चंद्र ग्रहण और पृथ्वी और सूर्य के मध्य चंद्रमा के होने से सूर्य ग्रहण लगता है।
सूर्य ग्रहण
सूर्य ग्रहण ब्रह्माण्ड की एक अद्भुत और रोमांचक खगोलीय घटना है, जो आध्यात्मिक और वैज्ञानिक, दोनों ही अर्थों में महत्वपूर्ण है। पृथ्वी अपनी धुरी पर परिभ्रमण करते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है। दूसरी ओर, चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह होने के कारण, पृथ्वी की परिक्रमा करता है, इस क्रम में जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के मध्य आ जाता है, इससे पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश आंशिक या पूरी तरह से अवरूद्ध हो जाता है। क्योंकि उस समय सूर्य चंद्रमा द्वारा ढक जाता है। यह एक ब्रह्माण्डीय चक्र के परिभ्रमण क्षेत्र में होने वाली विशेष घटना होती है। सापेक्षता के सिद्धान्त अनुसार आकाशमंडल में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती प्रतीत होती है और चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है। दोनों की अपनी परिभ्रमण कक्षाएं हैं। सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी के एक सीध में होने पर सूर्य ग्रहण होता है।
ज्योतिर्विज्ञान में यह चार प्रकार का कहा गया है।
1. खग्रास ग्रहण
2. खंडग्रास ग्रहण
3. कंकणाकृति ग्रहण
4. वलय ग्रास ग्रहण
खग्रास ग्रहण-
सूर्य बिंब से चंद्रबिंब की छाया बडी हो जाती है तो सूर्य बिंब पूरा ढक जाता है। यह खग्रास होता है। सामान्यतया यह पूर्व से लगकर पश्चिम की तरफ छूटता है। चंद्रग्रहण इसके विपरीत होता है ।
खंडग्रास-
खंडग्रास ग्रहण में सूर्य पूर्णरूप से आच्छादित नहीं होता। आंशिक होने से इसे खंड कहा गया।
कंकणाकृति-
सूर्य बिंब से चंद्र बिंब थोडा सा छोटा रह जाता है, तब इसमें एक सफेद छल्ला बाहरी ओर रह जाता है और बीच से सब काला हो जाता है। यह एक कंकण की तरह दिखता है।
वलय-
सूर्य बिंब से चंद्र बिंब की छाया, सूर्य से बडी होकर ऐसे छूटती है कि कोने की ओर से सूर्य का प्रकश निकलता है जो हीरे की अंगूठी सा दिखता है।
सूर्य ग्रहण सदैव अमावस्या को ही होता है। चंद्रमा का पात (राहू या केतु), सूर्य और चंद्रमा के भोगांश (Longitude) जब समान हो जाते हैं तो सूर्य ग्रहण की संभावना हो जाती है। अमावस्या समाप्ति काल के साथ 7 अंश के वैभिन्य पर सूर्य, चंद्र और राहू या केतू की दूरी 19 अंश से ज्यादा हो तो ग्रहण नहीं होता, 13 अंश से कम होकर शर भी समान हो तो ग्रहण होता है।
क्योंकि हम पृथ्वी पर हैं, जहां से गणना करते है तो जो चंद्रमा का पातबिंदू, जो उत्तर की ओर से गिना जाता है, वह उत्तरी पातबिंदू राहु होता है और दक्षिणी पात बिन्दु केतू होता है, जो पृथ्वी की कक्षा को (ग्रहपथ) को दोनों ओर से काटते हैं। चंद्रमा की कक्षा जिस पर, चंद्रमा पृथ्वी के चारों और घूमता है। यह क्रांतिवृत्त का कटाव बिंदू होता है, जो उसे 180 अंश पर काटता है। क्रांतिवृत्त पर तो पूथ्वी घूम रही है और पृथ्वी के चारों और चंद्रमा घूम रहा है। आप दो वृत्त बनाइए, एक खडा, एक आडा- वो दो जगह से काट लेगा। जहां वे दो कटाव के बिंदू होंगे, वे दो बिंदू राहु और केतु कहे गए हैं। जिन्हें पात बिन्दु, छाया गृह भी कहा जाता है। चन्द्र और सूर्य के समान भोगांश पर अमावस्या हो जाएगी और इनका शर समान हो तो (शर का अर्थ Latitude) सूर्य ग्रहण लग सकता। भोगांश और शर समानता ही ग्रहण का कारण है। इसलिए हर अमावस्या को ग्रहण नहीं लग सकता।
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शर या भोगांश कितनी देर समान रहेंगे, उतनी देर का और उतने हिस्से में ग्रहण लगेगा। क्योंकि यह निरंतरता पर निर्भर करता है। निरंतरता में जिस हिस्से पर यह प्रभाव आएगा, उस हिस्से में ग्रहण लगेगा। यदि यह निरंतरता किसी स्थान विशेष में रात में जुडी तो उस स्थान पर सूर्य ग्रहण अदृश्य होगा। क्योकि रात में सूर्य दर्शन नहीं होते।
चंद्र ग्रहण
चंद्रमा का स्वरूप सबसे छोटा है। सूर्य सबसे बडा, उससे छोटी पृथ्वी और उससे छोटा चंद्रमा। अपनी कक्षा में परिभ्रमण करते हुए जब पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही होती है और चंद्रमा पृथ्वी की कक्षा में परिक्रमा कर रहा होता है, काल विशेष में पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा के बीच आकर अपनी प्रच्छाया से चंद्रमा को ढक देती है तो चंद्र ग्रहण होता है। चंद्रग्रहण सदैव पूर्णिमा को ही होता है। यहां विशेष बात यह है कि शर तो यहां समान होता है लेकिन सूर्य और चन्द्र के भोगांश समान नहीं होता वह 180 अंश दूर होता है।
चंद्रग्रहण दो प्रकार का होता है।
छायाग्रहण Umbral - यह दो तरह का होता है- खग्रास चंद्र ग्रहण और खंड ग्रास चंद्रग्रहण
क्योंकि यह स्वयं प्रकाशमान नहीं है। इसलिए उसकी दो ही स्थिति हैं। खग्रास पूर्ण छाया आच्छादित ग्रहण है और खंडग्रास किसी हिस्से में होता है। पृथ्वी की पूर्ण गहन छाया में आए चंद्रमा का ही पूर्ण ग्रहण होता है, आंशिक रूप से छाया में आए चंद्रमा का आंशिक ग्रहण होता है और विरल छाया में उपच्छाया ग्रहण।
विरल छाया Penumbra- इसे उपच्छाया ग्रहण या मांद्य चंद्र कहा जाता है।
मांद्य चंद्र में शर समान न होते हुए थोडा सा हट के होता है। यह पृथ्वी की गहन छाया से भिन्न विरल छाया में चंद्रमा के आने से होता है। वस्तुतः यह खगोलीय घटना तो है, लेनिन आध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित ग्रहण की अवस्था न होने से इसका कोई आध्यात्मिक महत्व नहीं है। आध्यात्मिक महत्व न होने के कारण इसमें सूतक, स्नान, जप, यज्ञ औश्र दान आदि का भी कोई निर्देश शास्त्रों ने नहीं दिया है। पहले पंचांगों में इसका विवरण नहीं दिया जाता था, लेकिन कुछ वर्षों से कुछ पंचांगों में भी इसका उल्लेख होने लगा है।
एक चित्र के माध्यम से इसे देखें तो उसका विवरण इस प्रकार होगा। सूर्य के बायीं ओर चंद्रमा और सूर्य व चंद्रमा के बीच पृथ्वी होती है। सूर्य और पृथ्वी का शर एक समान हैं और सूर्य के केंद्र से चलीं दो किरणें पृथ्वी को स्पर्श करती हुईं पृथ्वी से आगे चंद्रमा की कक्षा को पार करती हुई शंकु आकार में पृथ्वी की गहन छाया का निर्माण करती हैं। जहां किरणें चंद्रमा को स्पर्श करेंगी वहां से गहन अंधकार हो जाएगा, उसको छाया कहते हैं। उसके बीच यदि चंद्रमा आता है तो चंद्रमा के ऊपर छाया बनेगी, जिससे पता चलेगा कि खग्रास है या खंडग्रास है। और सूर्य के केंद्र से चलीं दो किरणें नीचे से ऊपर की तरफ और ऊपर से नीचे की ओर परावर्तित होती है। वे पृथ्वी को स्पर्श करने से पूर्व परावर्तित होकर पृथ्वी को स्पर्श करती हुईं चंद्रमा के परिभ्रमण मार्ग पर विरल छाया का निर्माण करती हैं। ये किरणें सीधी सीधी चंद्रमा को स्पर्श नहीं करती हैं। जब चंद्रमा गहन छाया से बाहर के हिस्से में रह जाता है तो उस पर छाया नहीं बनी। छाया न बनने का कारण पात का समान न होना है। राहु या केतु, जो भी बिंदू निकट होता है, थोडा सा विचलित या हटा हुआ होता है। उस स्थिति में राहु, चंद्रमा और सूर्य के अंशों में अन्तर होगा। सूर्य और चंद्रमा के अंशों में 180 अंशों का अंतर होगा। और अधिकतम 9 अंश राहू आदि में अंतर होगा। शर का केवल ग्रहण गणना में ही विचार किया जाता है। जब चंद्रमा गहरी छाया में नहीं जाता तो जब वह बाहर की छाया में रहता है तो उसकी कांति कुछ मलिन हो जाती है। उसका परिमाण कम हो जाता है, इसलिए वो ग्रहण की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए मांद्य ग्रहण मे कुछ ऐसा नहीं दिखेगा कि कब ग्रहण प्रारंभ हुआ, कब मोक्ष हुआ, कब मध्य हुआ, कब स्पर्श्य हुआ, कब उन्मीलन हुआ, कब सम्मिलन हुआ। ।
इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि हम प्रकाश के किसी उत्सर्जक माध्यम सामने किसी सीध में खड़े हो जाते हैं तो हमारी छाया बन जाती है। आप ध्यान से देखेंगे तो एक छाया तो गहरी बनती है और उसी छाया से कुछ हटकर एक कम गहरी छाया भी बनती है। वह हल्की छाया पेनुंब्रा(Penumbra) कही जाती है। पृथ्वी की सीधी छाया यदि चंद्रमा पर पडती है तो उसे (Umbra) कहा और यदि अप्रत्यक्ष छाया पडेगी तो (Penumbral) कहा जाएगा। यह छाया की भी छाया है, इसलिए इसे उपच्छाया कहते हैँ। इसे अनेक स्थानों पर मांद्य कहा गया है।यह ग्रहण नहीं होता है। इस प्रकार न तो विगत 5 जून2020 को चंद्रग्रहण था और न ही 5 जुलाई हो चंद्रग्रहण है, क्योंकि दोनों मांद्य हैं। लेकिन 21 जुलाई 2020 को कंकण सूर्य ग्रहण लग रहा है। जिसका प्रभाव समस्त पृथ्वी पर पड़ेगा।
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ग्रहण प्रभाव
भारतीय ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार आषाढ मास की अमावस्या को लगने वाला यह सूर्य ग्रहण भारत के अतिरिक्त पूर्वोत्तर यूरोप, पूर्वोत्तर एशिया, उतरी आस्ट्रेलिया, मध्य अमेरिका, आदि जगहों पर दिखाई देगा। भारत के दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में यह कंकणाकृति ग्रहण के रूप में दिखाई देगा। शेष भारत के अतिरिक्त दक्षिणी चीन का कुछ भाग, ताइवान, अफ्रीका में कुछ स्थानों पर, यमन, ओमान आदि में कंकणाकृति दिखाई देगा तथा अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, दक्षिणी रूस, मंगोलिया, मलेशिया, कोरिया, जापान, इन्डोनेशिया, पूर्वी आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, ईरान आदि मे खंडग्रास ग्रहण के रूप मे दिखाई देगा।
सूर्य ग्रहण मृगशिरा और आद्रा नक्षत्र तथा मिथुन राशि पर लग रहा है, इसलिए मृगशिरा और आद्रा नक्षत्र तथा मिथुन राशि राशि नक्षत्रों में जन्मे जातकों को यह ग्रहण नहीं देखना चाहिए तथा स्त्रियों, गर्भवती माताओं, नव विवाहिताओं, युवाओं, व्यवसाईयों, राजनेताओं और धर्म अध्यात्म से जुड़े मानवों को यह ग्रहण नहीं देखना चाहिए। उन्हें अपने ईष्ट की आराधना करनी चाहिए और गुरुमंत्र का जप करना चाहिए।
सूतक
सूतक को अशुद्धिकाल भी कह सकते हैं। भारतीय शास्त्रों ने जन्म, मृत्यु और ग्रहण और महा आपदा काल में सूतक नियमों का पालन करने सूत्र दिए हैं। सूतक लग जाने पर शुभ कार्यों का निषेध हो जात है। मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। सूर्य ग्रहण का सूतक 12 घंटे पूर्व और चंद्रग्रहण का सूतक सामान्यतया 9 घंटे पूर्व माना जाता है। ग्रहण का सूतक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 20 जून की रात करीब 9.52 बजे से शुरू हो जाएगा। ग्रहण 21 जून 2020 को प्रातः 10:20 के लगभग शुरु होगा, तो लगभग 12 बजे दोपहर तक पूर्ण प्रभाव में आ जाएगा। ग्रहण मोक्ष दोपहर 1:49 पर होगा।
-क्या करें
सूतक प्रारंभ होने से पूर्व बने भेज्य पदार्थों तथा पेय पदार्थों में कुशा अथवा तुलसीपत्र रखें। इससे ग्रहणकाल की नकारात्मक तरंगों के विकिरण से भोज्य पदार्थ दूषित नहीं होते हैं। घर की शुद्धि करके ग्रहण प्रारंभ होने के पूर्व स्नान करें और अपने कुल देवता, पितरों, गुरुओं का स्मरण करते हुए ईष्ट देव का ध्यान करें, गुरुमंत्र करें। ग्रहण समाप्त होने के बाद पुनः स्नान करें। यह अत्यंत ऊर्जाप्रवाह का समय होता है, इसलिए इस समय किए गए स्नान, जप-तप- यज्ञ और दान का बहुत महत्व शास्त्रों ने कहा है।
क्या न करें
ग्रहणकाल और सूतक में कोई नया कार्य न करें। भोजन न बनाएं, न खाएं। इस काल में सोना, मल मूत्र त्याग करना निषेध है।
तुलसी या अन्य देववृक्षो का स्पर्श न करें। ग्रहण के बाद तुलसी को जल से शुद्ध करें।
घर के मंदिर में विराजमान किसी देव प्रतिमा को स्पर्श न करें। उन्हें पूर्व में ही वस्त्रादि से आच्छादित कर दें और घर से बाहर न निकलें।
ग्रहण होते सूर्य या चंद्र के दर्शन नहीं करने चाहिएं।
ग्रहणफल
इस ग्रहण का स्पर्श मृगशिरा नक्षत्र में और मोक्ष आद्रा नक्षत्र एवं मिथुन राशि में हो रहा है। अत: मिथुन राशिस्थ सूर्य एवं मृगशिरा व आद्रा नक्षत्र में घटित होने से मृगशिरा व आद्रा नक्षत्र एवं मिथुन राशि में जन्म लेने वालेया जिन जातकों का नाम मिथुनराशि का है, ऐसे जातकों के लिए यह ग्रहण विशेष कष्टप्रद है।
आषाढ़ मास के ग्रहण का फल
विश्वविख्यात ज्योतिर्विद आचार्य वराहमिहिर ने ज्योतिष के सुप्रदिध्द ग्रंथ वृहत् संहिता में स्पष्ट किया है कि
आषाढ़पर्वण्युदपानवप्रनदीवाहान् फलमूलवार्तान्।
गान्धारकाश्मीरपुलिन्दचीनान् हतान्वदेद् मण्डलवर्षमस्मिन्।।
अर्थात् आषाढ मास के ग्रहण में जल स्रोत, नदी के प्रवाह, फलों- मूलों के व्यापारी तथा गांधार(अफगानिस्तान), कश्मीर, पुलिंद और चीन आदि देशों के निवासियों का विनाश होता है।
रविवार ग्रहण का फल
अल्पं धान्यल्प मेघाश्च स्वल्पक्षीराश्च धेनव:।
कलिंगदेश पीड़ा च ग्रहणे रविवासरे।।
अर्थात् जब रविवार को ग्रहण होता है तब वर्षा की कमी, खेतखलिहानों में अन्न की कम उपज, गायों का दूध कम होना कम हो जाता है।
वक्री ग्रहों का प्रभाव
यह विकट समय है, ग्रहण 12 में से 8 राशियों वृष, मिथुन, कर्क, तुला, वृश्चिक, धनु, कुंभ और मीन के लिए अशुभ है। जब मंगल के अतिरिक्त छः ग्रह शुक्र, बुध, गुरु, शनि, राहू और केतू वक्री गति में होने से यह प्राकृतिक आपदाओं, कहीं अधिक वर्षा और कहीं अकाल जैसे हालात उत्पन्न हो सकते हैं। भूकंप और समुद्री तूफान से जन धन की भारी हानि हो सकती है। विश्व में अराजकता, महामारी और आर्थिक संकट के हालात होंगे।
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