कालिदास विक्रमादित्य के दरबार में नवरत्नों में से एक थे। उन्होंने ज्योतिर्विदाभरणम्ï गंरथ में गृह प्रवेश को लेकर एक अध्याय रचा है। अधिकांश भारतीय जनता को यह मालूम नहीं है कि कालिदास ने वास्तु प्रकरण पर भी कुछ लिखा है। ज्योतिर्विदाभरणम्ï ग्रंथ की रचना का काल 3068 वर्ष कलियुग बीत जाने पर वैशाख मास से शुरू करके कार्तिक मास में समापन माना जाता है। इस आधार पर ज्योतिर्विदाभरणम्ï 1164 शक में लिखा गया होगा।
मैं जनता के हितार्थ उक्त ग्रंथ के मूल श्लोकों को उद्धृत करके उनका अर्थ स्पष्ट कर रहा हूं। वास्तु के शास्त्रीय आधार को जनता तक पहुंचा कर हम यह पाठकों पर छोड़ते हैं कि वे कितना अधिक पालन इसका कर सकते हैं। बिना ज्योतिष जाने और बिना वास्तु शास्त्रों का मनन किए जो लोग यह कर्म कर रहे हैं उन्हें भी इससे कुछ मदद मिल सकती है।
- गार्हस्थो विपुलयशा यदाश्रमाणां धर्मो वेदवचनकमसारधर्म:।
तद्देवादिजमनुजाखिलाप्तकामो वक्ष्येऽहं कुलकरणस्य कालनीतिम्ï॥
सभी धर्मों में से गृहस्थ धर्म बहुत महत्वपूर्ण है। चारों आश्रमों में विपुल कीर्ति देने वाला यह गृहस्थ धर्म है जो कि वेदत्व कर्मों का सार है। इस धर्म से देवता, ब्राह्मïण और मनुष्य अपनी अभीष्ट सिद्धि करते हैं।
- वृत्रारिस्वपतिवनेश्वरान्तकानां दिक्षु स्याद्भवनमिहादिजादिकानाम्ï।
वर्णानां विदिशि शुभं च संकरस्य प्रासादे हरिशिवयक्षदिग्विमध्यम्ï॥
पूर्व दिशा में ब्राह्मïण, उत्तर दिशा में क्षत्रिय, पश्चिम दिशा में वैश्य और दक्षिण दिशा में शूद्र वर्णों के लिए गृह शुभ होते हैं। शंकर जातियों के लिए कोणों में गृह शुभ होते हैं। हरी, शिव और यक्ष की दिशाओं में कोई मध्य में हो तो शुभ होता है।
- नागाङ्ï गेनयुगनवागभूग्रधिष्ण्यैर्नागारं हरिहरितो वरं ककुप्सु।
जन्मोत्थैरनु परभै: पुरस्य मध्ये स्यादेवं यमवति भस्थले नराणाम्ï॥
पूर्व दिशा में वृश्चिक, अग्निकोण में कन्या, दक्षिण में मीन, नैऋत्य में कर्क, पश्चिम में धनु, वायव्य में तुला, ईशान कोण में कुंभ राशि वालों के लिए ग्रह शुभ नहीं होते। यह राशि जन्म नक्षत्र के आधार पर देखनी चाहिए। ग्राम चक्र में शनि जिस राशि में हो उस स्थान पर ग्रह निर्माण नहीं करना चाहिए।
- मीनालीभरिपुभन्नुरिष्टïमोक: प्रागास्यं मकरवशकुलीरभस्य।
याम्यास्यं जितुमतुलास्त्रभस्य पुं. स: पश्चात् द्वारपरभवन्नुरुत्तरास्यम्ï॥
मीन, वृश्चिक और सिंह राशियों में जो पुरुष उत्पन्न होते हैं उनके लिए पूर्व दिशा में द्वार शुभ होता है। मकर, कन्या और कर्क राशि वालों के लिए दक्षिण का द्वार शुभ होता है। मिथुन, तुला और धनु राशि वालों के लिए पश्चिम का द्वार शुभ होता है तथा मेष, वृष और मीन राशि वालों के लिए उत्तर का द्वार शुभ होता है।
- फाल्गुने नभसि सहस्ये वैशाखे शरणमशेषशं विधत्ते।
आरब्धं द्वितनुभभानुयोगयुक्ते निर्लेयामरसचिवादिभूखगास्ते॥
फाल्गुन, श्रावण, मार्गशीष, पौष और वैशाख मास में द्विस्वभाव राशियों में जब सूर्य न हो अर्थात मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशियों में जब सूर्य न हो तथा सिंह राशि में जब गुरू न हो तथा जब गुरू और शुक्र अस्त न हो तो शेष बचे समय में यदि गृह निर्माण प्रारंभ किया जाए तो शुभ रहता है।
- मासेऽपागयनगतेऽपि चौकस: स्यादरम्भोऽतिवरफलोऽत्रवेनं न।
भेदत्वाद्धटननिवेशदेवतानां रिक्तामा शुभयुतिविष्टिïमुक्तपक्ष:॥
गृह निर्माण और ग्रह प्रवेश के देवताओं में अंतर होता है। इस कारण से दक्षिणायन में जब सूर्य हों, उन मासों में भी गृहारंभ किया जा सकता है, परंतु दक्षिणायन में जब सूर्य हों तो गृह प्रवेश शुभ नहीं माना जाता है। रिक्ता तिथियां, अशुभ योग तथा भद्रा का निवारण करके गृह निर्माण एवं गृह प्रवेश करना प्रशस्त है।
- भानौ केसरिणि मृगे च कुम्भकर्क्योरिन्द्राशापरवदनं निशान्तमुक्तम्ï।
गोजूकभ्रमरपशूष्णदृष्टियोगे कीनाशस्वपतिदिगाननं प्रवेकम्ï॥
सिंह, मकर, कुंभ और कर्क राशियों में सूर्य हो तो गृह का मुख्य द्वार पूर्व और पश्चिम दिशा में और वृष, तुला, वृश्चिक और मेष राशि में सूर्य हो तो उत्तर तथा दक्षिण दिशा में गृह का द्वार प्रशस्त बताया गया है।
- मासोदर्शयुगकालमों यथा यो ग्राह्यïोऽसौ निलयकृतौ प्रमाणसिद्ध:।
सर्वत्रैव सुरधुनी कलिन्दजान्तर्देशे स्यादपविधुघस्रमध्यवर्ती॥
दो अमावस्याओं के मध्य अर्थात अमांतमास को ही सभी देशों में प्रशस्त माना गया है। गंगा और यमुना नदी के मध्य भागों में अमावस्या मास के मध्य में मानी जाती है। इन देशों में मास पूर्णिमांत माना जाता है। अत: इन प्रांतों में पूर्णिमांत मास से गणना की जानी चाहिए।
- सद्वारे करणमुतोूरजस्य भानौ तिष्यश्वासनमृदुवासवैनधीरै:।
आधत्ते सुषमफलं सवारुणर्क्षेरुत्सृष्टशुभखगयोगविद्धबिम्बै:॥
शनिवार और मंगलवार को छोड़कर अन्य वार शुभ होते हैं। अशुभ ग्रहों के योग और यदि वेध नहीं हो तो पुष्य, स्वाति, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, धनिष्ठा, हस्त, तीनों उत्तरा, रोहिणी तथा शतभिषा नक्षत्रों में गृह निर्माण सुखदायक होता है।
- पूर्वत्से क्रमरविधिष्ण्यचक्रभदै स्त्रिद्वय़्ब्धित्रियुगणमाश्विवेददृग्मै:।
दृग्माग्रै: शवृजिनकायरुक्ïशधैर्यं दारिद्रयं दरमरणे क्रमेण कर्तुं॥
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उपरोक्त नगरवत्स चक्र की तुलना में गृहवत्सचक्र में नक्षत्रों की स्थिति भिन्न है। जिस प्रकार सूर्य जिस नक्षत्र पर हो उससे तीन नक्षत्र गृह निर्माण करने वाले के लिए शुभकारक उसके बाद एक नक्षत्र अशुभ, उसके बाद के चार नक्षत्र धनकारक, उसके बाद के तीन नक्षत्र लाभकारक, उसके बाद के तीन नक्षत्र रोगकारक, उसके बाद के दो नक्षत्र सुखकारक, उसके बाद के दो नक्षत्र धैर्यकारक, उसके बाद के चार नक्षत्र दरिद्रता देने वाले, उसके बाद के दो नक्षत्र भयकारक तथा अंतिम दो नक्षत्र मृत्यु देते हैं।
- शाले पुर चाष्टविभागभेदो दिग्भागभेदो मठमन्दिरादौ।
भेदा: षडत्रामरधाम्नि धीरैरन्यत्र वा द्वादश वत्सचक्रे॥
शाल और पुर के निर्माण में वत्सचक्र के आठ भाग वाली योजना को स्थापित करना चाहिए। मठ और मंदिर में 10 भाग वाली योजना काम में लानी चाहिए। देवताओं के गृह मंदिर के निर्माण में वत्सचक्र के छह भागों वाली योजना को अमल में लानी चाहिए तथा अन्य स्थानों के निर्माण में 12 भागों वाली योजना को अमल में लाना चाहिए।
- स्यु: सप्तसप्तानलभादुडूनि प्राच्याचतुर्दिक्षु निशान्तचक्रे।
पुरोगपृष्ठस्थमिहौषधीशं त्यक्त्वा तदारम्भणमिष्टमुक्तम॥
गृह चक्र में पूर्व दिशा में सात नक्षत्र, उत्तर दिशा मेंं सात, दक्षिण दिशा में सात एवं पश्चिम दिशा में सात नक्षत्रों की स्थापना करने से गृहचक्र बनता है। सम्मुख और पृष्ठ में जो नक्षत्र होते हैं, उनमें चंद्रमा को छोड़कर शेष नक्षत्रों में जब चंद्रमा स्थित हो तब गृ़हारंभ शुभ माना गया है।
- निकेतनं स्यात्त्रिविधं हि मृण्मयं हर्म्यं सदा पर्णकुटं बुधै:स्मृतम्ï।
एको नयस्तत्करणस्य चोच्यते तथापि तत्प्रोक्तविशेषतन्नय:॥
मिट्ïटी, ईंट या पत्थर तथा पर्णकुटी इन तीनों से गृह निर्माण प्रशस्त बताया गया है।
- न हारि हर्म्येऽभिमुखं तम: स्यात्ï दृश्यं न तत्पर्णकुटादिगेहे।
क्षपाकार: पर्णकुटेऽभिवक्त्रो न दर्शनीयोऽन्यकुले स दृश्य:॥
ईंट से बने भवन निर्माण में यदि राहु सम्मुख पड़े तो शुभ नहीं माना जाता। पर्णकुटी में राहु या चंद्रमा का विचार कम किया जाता है।
- लघुश्रवोधीरमृगान्त्यचित्रामित्राङ्गिरोमैत्रसिताख्यवारै:।
न्यासं शिलादारुकृतं सुधाया: कुर्वन्ति लेपं निविडं च धिष्ण्ये॥
हस्त, अश्विनी, पुष्य जो कि लघुसंज्ञक नक्षत्र है तथा दीर्घसंज्ञक नक्षत्र जो कि तीनों उत्तरा और रोहिणी है, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा नक्षत्रों में बृहस्पति, शनिवार और शुक्रवार को शिलान्यास, काष्ठन्यास तथा गाड़े चूने का लेप करना चाहिए।
- नभस्यमासं परिहाय पक्षं त्विषोर्जयोरादिममन्त्यमाहु:।
शुचेर्बुधा: पर्णकुटक्रियां वा समस्तवारेषु सिताङ्गिरोऽस्तम॥
पर्णकुटी का निर्माण यदि करें तो भाद्रपद मास, आश्विन मास, कार्तिक का प्रथम पक्ष एवं आषाढ केे अंतिम पक्ष को छोडकर तथा गुरू और शुक्र के मूढ दोष को बचाकर अन्य वार शुभ बताए गए है।
- कर्णत्रयं हारमृदुध्रुवाख्यैर्युतं सतिष्यानलमुर्ध्वभूमे:।
आरम्भकृत्ये कृतिनो नयन्ति ज्ञादित्रये भूषणभाजि वारे।।
प्रथम तल के लिए विद्वानों ने श्रवण से तीन, श्रवण, धनिष्ठा, शततारक, हस्त, आर्द्रा, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, तीनों उत्तरा, रोहिणी, पुष्य, स्वाति और कृत्तिका नक्षत्रों को शुभ बताया गया है। बुध, गुरू और शुक्र के दिन मुहूर्त निकाले जा सकते है।
- स्याद्ïद्विप्रकृत्यचरराश्युदये सकेन्द्रै: सद्भि: सदोपचयवद्भिरसद्भिरोक:।
सर्वर्द्धये हय्ïुत विदाङ्गिरसा खगेनागारानुगेन नरराश्युदये च सिद्धयै॥
द्विस्वभाव राशियों, स्थिर राशियों की लग्नों में केन्द्र में शुभ ग्रह होने पर उपचय स्थानों में पापग्रह के होने पर पुरुष संज्ञक लग्नों के प्रारंभ में, चतुर्थ और दशम भावों में बुध और बृहस्पति के रहने पर गृहारंभ सर्वसिद्धियों को देने वाला होता है।
- दृष्टारिनाश उदयोऽपि कुले सुखाप्त्यै दुष्टारिनाश उदयो न कुले सुखाप्त्यै।
आरम्भकालवति दृष्टमदोदयश्चेदारम्भकालवति दुष्टममहोदय: स्यात्ï॥
दुष्ट और शत्रुओं के नाश के साथ उदय कुल में सुख प्रदान करता है परंतु दुष्ट ग्रहों के साथ छठे, आठवें भाव के स्वामी यदि लग्न में हो तो महान कष्टकारी होते हैं। यदि गृहारंभ लग्न के सप्तम में पापग्रह हों तो गृहकलह होता है।
- गुरौ धने राजसुते निवृत्तौ मैत्रे बले मातुलभाजि मित्रे।
कवौ कुले भूभुवि विद्धि लाभे क्षयं समारम्भितमक्षयं हि।
गृहारंभ के समय बृहस्पति लग्न में, सप्तम में बुध, तीसरे में शनि, छठे में सूर्य, चतुर्थ में शुक्र व ग्यारहवें भाव में मंगल हो तो आरंभ होने वाले गृह की उम्र बहुत अधिक होगी।
- सराजमन्त्री कुलमानवर्ती सहंसभूमङ्गललाभभाव:।
निशान्तकर्तुश्चिरधामसौख्यं यदोत जम्बालचरोदयेऽब्ज:॥
चंद्र-गुरू युति दशम या चतुर्थ में हो, शनि-मंगल युति ग्यारहवें में हो या कर्क के चंद्रमा लग्न में हो तो गृहस्वामी बहुत दिन तक उस मकान में रहता है या मकान का सुख मिलता है।
- ग्रहेश्वर नष्टबले गृहेश्वरो विधौ वधू मन्त्रिणि शं च रा: सिते।
क्षयं समेति क्षयसाधनेऽथवा नीचाश्रयिण्यंशुविलुप्तमण्डले॥
सूर्य निर्बल हो तो गृहस्वामी का नाश होता है। चंद्रमा निर्बल हो तो गृहस्वामी की पत्नी का नाश होता है। गुरू निर्बल हो तो सुख का तथा शुक्र निर्बल होने पर धन का नाश होता है। यदि ग्रह अस्त या नीच में हो तो भी इस प्रकार के फल मिलते हैं।
- ससौम्यराज्यश्च सभास्त्रदाय: सपूज्यकेन्द्र ससितोदयश्चेत्ï।
विनिर्मितं यच्छरणं शरण्यं भवेच्चिरं कर्तुरुदारसम्पत्ï॥
यदि गृहारंभ लग्र मेंं दशमस्थ बुध हो, एकादश में सूर्य, केन्द्र में गुरू, लग्न में शुक्र हो तो दीर्घावधि तक वे ग्रह संपत्ति व सुख देता है।
- समङ्गलं मातुलवर्गमादरात्सविक्रमं सूरमगारसाधने।
गुरुं कविं सोदयमिच्छसि स्थितिं गहाण चेदब्दशतद्वयं गृहिन्ï॥
यदि प्रारंभ लग्न में छठे भाव में मंगल, तीसरे में सूर्य और गुरू एवं शुक्र लग्न में हो तो गृह स्वामी 200 वर्ष तक सुख समृद्धि के साथ उस घर में निवास करता है।
ऐसे बहुत सारे और भी योग हैं जिनमें गृहस्वामी निर्माणारंभ लग्न के कारण सुख-समृद्धि को प्राप्त होता है।
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