महर्षि पाराशर जी को श्रद्घा नमन के उपरान्त यह चर्चा करते हैं कि ज्योतिष शास्त्रों में यद्यपि अनेक महादशाओं के नाम व प्रयोग विधि वर्णित है फिर भी महादशाओं का नाम आते ही हम सब सीधे सीधे विंशोत्तरी दशा से गणना शुरु करते दिखाई देते हैं। क्या ऐसा इसलिए कि पुस्तकों में उदाहरण स्वरूप सिर्फ विंशोत्तरी का विभाजन करना व गणना के बाद फल कथन का वर्णन मिलता है या महज एक सुविधाजनक प्रवृत्ति वश? यद्यपि हमें विंशोत्तरी का प्रयोग तभी करना चाहिए जब यह पता लगाना मुश्किल प्रतीत हो कि इस जन्म पत्री पर कौनसी महादशा का प्रयोग किया जाए।
‘वृहत्त-पाराशर होराशास्त्र में 42 प्रकार की दशाओं का वर्णन व नामावली बताई गयी है। कुछ जन्म पत्रियों में जन्माङ्कï देखकर ही पता चल जाता है कि अमुक महादशा का प्रयोग करना चाहिए फिर भी आदतवश विंशोत्तरी की गणना ही को (खासकर कम्प्यूटर द्वारा बनी जन्मपत्री में) विभाजन में प्रयोग लाया जाता है। क्या यह उचित है?
ज्यादातर ‘दशा पद्घति’ नक्षत्र नियम पर आधारित है। जिसमें 27 नक्षत्रों के विभाजन से समय गणना की विधि प्रचलित है। दशा पद्घति में नक्षत्र गणना के हिसाब से वर्ष के दिनों की संख्या 365 होती ही नहीं? यदि समय गणना हम ‘सौर मास’ के हिसाब से भी करें तो भी दिनों की संख्या 360 ही होती है। फिर हर वर्ष के हिसाब से 5 दिन का समय गणना में कुछ ही वर्षों में बड़ा अन्तराल आ जाता है। इसका अर्थ है कि हमारे ऋषियों ने समय की गणना का सिद्घान्त ‘‘सौर सिद्घान्त’’ तो प्रतिपादित किया ही है कुछ अन्तर के साथ अधिक मास या मल मास का प्रावधान कर हर चार वर्षो बाद समय को पुर्ने स्थापित किया है। वर्ण के दिनों की संख्या का आंकलन आज भी कहीं न कहीं कमी का या अनुपलब्धता का सूचक है। क्योंकि कुछ नियमों में समय की गणना आज भी नक्षत्र के हिसाब से (27 दिन का माह) ही मानते व लगाते है, जिसे ‘चन्द्र मास’ भी कहते हैं।
कुछ दशा विशेष के नाम व उनको किस प्रकार की जन्म पत्री पर लगाना चाहिए इस ग्रन्थ में स्पष्टï लिखा है। सिर्फ समय का विभाजन विंशोत्तरी के समान कहा गया है न कि ग्रहों की पुनरावृत्ति विंशोत्तरी के समान का वर्णन है। कुछ उदाहरण लेकर आगे स्पष्टï करते हैं।
1. द्वादशोत्तरी दशा : यह दशाक्रम कुल 112 वर्ष का होता है। इसके लिए स्पष्टï लिखा है कि जिस जन्म पत्री में शुक्र के नवांश में जन्म हो उस पत्रिका में ‘द्वादशोत्तरी दशा’ का प्रयोग करें इसमें नौ ग्रहों की दशा के स्थान पर शुक्र ग्रह को छोडक़र बाकी ग्रहों की 7 वर्ष से शुरु कर 2-2 वर्ष आगे बढाकर वर्ष संख्या लें। ग्रहों को क्रम सू. गु. के. बु. रा. मं. श. चं. इस प्रकार है। हाँ इतनी प्रक्रिया के बाद व निश्चय के बाद कि द्वादशोत्तरी ही लगानी है। समय गणना अवश्य विंशोत्तरी के समान कर सकते हैं।
2. अष्टोत्तरी दशा (108 वर्ष) : यहाँ केतु को शामिल नहीं किया गया है तथा इसमें दशा वर्ष सू.-6, च.-15, बु.-17, श.-10, गु.-19, रा.-12, शु., 21 वर्ष है। इस दशा को किस पर लागू करना है- लग्रेश से राहु लग्र को छोडक़र केन्द्र या त्रिकोण में हो तो अष्टïोत्तरी ग्रहण करना।
3. पंचोत्तरी दशा (105 वर्ष) : जिस जातक के बृहस्पति कर्क राशि में व कर्क के द्वादशांश में हो उस पत्रिका पर पंचोत्तरी दशा लगाना चाहिए। अनुराधा नक्षत्र मेें जन्म नक्षत्र तक गिनकर नक्षत्र गणना करना कहा है।
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4. शताब्दिका या शतवर्णीया दशा (100 वर्ष) : जिस जातक का जन्म वर्गोत्तम लग्र में हो उस जातक पर शताब्दि का प्रयोग का फल विचार करें। सिर्फ जन्म नक्षत्र का भयात व भभोग विंशोत्तरी के समान है। वर्ष संख्या 5-5, 10-10, 20-20, 30 (100) ग्रह दशा स्वामी क्रम सू., चं., शु., बु., गु., मं., श. है।
5. चतुरशीति वर्ष दशा (84 वर्ष) : जिस जातक के कर्मेश (दशमेश) दशमभाव में हो उसको इस दशा से फल कहना चाहिए। इसके दशा क्रम सू., चं., बु., गु., शु., श. सभी के 12-12 वर्ष संख्या।
6. द्विसप्ततिका : जिस जातक के लग्रेश सप्तम भाव में अथवा सप्तमेश लग्र में हो उसके लिए 72 वर्ष की इस दशा का विचार करना मूल नक्षत्र से जन्म नक्षत्र तक गिनकर दशाक्रम तय करें व केतु को छोडक़र क्रमश: सू., चं., मं., बु., वृ., शु., श., रा. सभी के 9-9 वर्ष।
7. षष्ठिहायिनी : जिस जातक की लग्र की राशि व चन्द्र की राशि एक हो उस जातक को इस दशा का प्रयोग वांछनीय है। इस दशा की वर्ष संख्या भी अष्टïोत्तरी के समान तीन या चार नक्षत्रों पर विभाग करके 1-1 भाग 1-1 नक्षत्र का समझना चाहिए।
संक्षेप में कुछ दशाओं का नाम व उनके लगाने की विधि व वर्ष संख्या बताई गई है। चर दशा, स्थिर दशा, कालचक्र दशा, कारक दशा, नवमांश दशा सभी के बारे में मौटे तौर पर व विधि वर्णित है। आगे अन्य दशाएँ जिसमें स्पष्ट संकेत नहीं मिल पाते कि यह दशा किस प्रकार की पत्रिका पर लगायें कुछ उपलब्धता में कमी दर्शाता है पर दशाचक्र पर प्रश्र चिन्ह नहीं?
अन्त में दो जन्म पत्री प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिनका जिक्र काफी पुस्तकों व पत्रिकाओं व अखबारों द्वारा किया जाता रहा है सिर्फ विंशोत्तरी के आधार पर कहाँ तक उचित है -
- प्रथम जन्म पत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की है जो काफी पुस्तकों में उदाहरण स्वरूप दी जाती रही है। ज्यादातर सभी ने घूम फिरकर विंशोत्तरी के हिसाब से गणना व समय निर्धारण करके उनके जीवन काल की घटनाओं को पुस्तकों में समेट दिया है। क्या यह उचित है? उनकी जन्म पत्री में स्पष्टï संकेत लग्रेश सप्तम में व सप्तमेश लग्र में बैठकर ‘‘द्विसप्ततिका दशा’का प्रयोग उचित बताती है। फिर उनके जीवन काल के घटना क्रमों को जबरदस्ती विंशोत्तरी गणना के हिसाब से समेटना कहाँ तक उचित है। इस गणना में केतु को छोडकर क्रमश: सू., च., मं., बु., वृ., शु., श., रा. इस क्रम का समय निर्धारण 9-9 वर्ष का होना चाहिए।
- दूसरी जन्मपत्री स्व. मदर टेरेसा की है जिसमें उनका नवांश लग्र भी मकर ही है अर्थात उनकी जन्मपत्री में भी स्पष्टï संकेत है कि वर्गोत्तम नवांश वाली पत्रिका में शताब्दिका (100 वर्ष) दशा का प्रयोग वांछनीय है। उनके जीवन काल की घटनाएँ भी विंशोत्तरी के हिसाब से समेटना उचित प्रतीत नहीं होता।
- यदि मोटे तौर पर भी देखें तो आप पाएंगें कि दोनों जन्मपत्रियों में ये अपनी आयु के दशा पद्घति के द्वारा प्रदत्त वर्षों में ही जीवन को समेटती नजर आएंगी। स्व. इन्दिरा गाँधी की अधिकतम आयु 72 वर्षो में से 68 तक यात्रा करना इस दशा पद्घति के ज्यादा करीब लाती है न कि विंशोत्तरी (120) दशा के। इसी प्रकार मदर टेरेसा का जीवनकाल 100 वर्षो में समेटना ज्यादा उपयुक्त है। वनस्पत 120 वर्षो के। इनके जीवन क्रम की घटनाओं को इनकी उपयुक्त दशा पद्घति लगाकर प्रयोग करना ज्यादा प्रमाणिक होगा। इनकी जन्मपत्रिका विशेषण इनके दशा पद्घति के हिसाब से अन्य लेख में दिया जाएगा। अभी सिर्फ यही कहना है कि विंशोत्तरी का उपयोग हम तभी करें जब हमें लगे कि अमुक जन्म पत्रिका किसी दशा पद्घति के अन्तर्गत नहीं आ रही है।
- पाराशर जी ने विंशोत्तरी दशा को महत्ता दी है। दशा क्रम लिखने में सबसे पहले विंशोत्तरी दशा का ही वर्णन किया है। दशाफल के वर्णन करते समय भी ऋषि ने विंशोत्तरी दशा का ही विस्तृत वर्णन किया है जिससे इसकी महत्ता दर्शित होती है।
- वर्तमान युग एक विशेषणात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है। जीवन की बढ़ती हुई उलझनें अब अपेक्षा करती है कि दैवज्ञ फलित करते समय ज्यादा से ज्यादा बारीक विवेचन करें। इसके लिये आवश्यक हो गया है कि शास्त्रों में जो ज्ञान उपलब्ध है पर प्रयोग में नहीं है उसका पुर्नजागरण करने की व विषय से न्याय करने की।
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